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Happy Independence Day 2025: स्वावलंबन में ही है आजादी का असली सुख, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं!

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: August 15, 2025 05:32 IST

Happy Independence Day 2025: राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत भारतीयों में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होकर देश में स्वराज्य स्थापित करने की तीव्र अभिलाषा जगी. 

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ठळक मुद्देभारत का शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.सात हजार वर्षों से भारत की सभ्यता को निरंतर प्रवहमान किए हुए थी.देश को सन्‌ 1947 में अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता मिली.

Happy Independence Day 2025: पराधीन सपनेहु सुख नाहीं! अपनी अमूल्य कृति ‘रामचरितमानस’ में गोस्वामी तुलसीदासजी की यह उक्ति प्राणिमात्र के जीवन की एक प्रमुख सच्चाई को दर्शाती है कि दूसरे के अधीन रहने वाले को सपने में भी सुख नसीब नहीं होता.  पराधीन रहते हुए भारतवर्ष ने लगभग हजार वर्ष की लंबी अवधि तक अनेकानेक कष्ट सहे और यातनाएं झेलीं. तरह-तरह के शोषण द्वारा विदेशी आक्रांताओं ने भारत को विपन्न बनाने की लगातार कोशिश की. अंग्रेजों ने उपनिवेश बना कर हद ही कर दी. उन्होंने भारत का शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

अपने ही देश में खुद को अस्वीकृत (रिजेक्ट) और हाशिए पर भेज कर अप्रासंगिक बनाए जाने की असह्य पीड़ा ने भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम के लिए तैयार किया. यह भारत की अदम्य जिजीविषा ही थी जो जननी और जन्मभूमि से जुड़ाव के साथ लगभग सात हजार वर्षों से भारत की सभ्यता को निरंतर प्रवहमान किए हुए थी.

इसी क्रम में राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत भारतीयों में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होकर देश में स्वराज्य स्थापित करने की तीव्र अभिलाषा जगी. इस दौर में वैश्विक राजनैतिक परिस्थितियों ने भी साथ दिया. कई तरह के राजनैतिक उतार-चढ़ाव के बीच चले संघर्ष के फलस्वरूप देश को सन्‌ 1947 में अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता मिली.

स्वतंत्रता की प्राप्ति राष्ट्रीय जीवन में एक प्रस्थान बिंदु होना चाहिए था जहां से स्वदेशी कल्पनाओं वाली संकल्पना वाले भारत का सृजन शुरू होता, पर नियति ऐसी कि स्वतंत्रता भारत को खंडित करके दी गई. विभाजन एक भीषण हिंसक मानवीय त्रासदी बन गया, जिसके प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणाम दूरगामी प्रभाव वाले साबित हुए.

देश स्वतंत्र हो गया  लेकिन  हम सर्वोदय के लक्ष्य के ज्यादा करीब नहीं पहुंच सके. कुछ बदलाव जरूर आए और उनके कुछ अच्छे परिणाम भी हुए परंतु आत्मनिर्भरता, उन्नति और एकजुट होकर देश के कल्याण की कोशिश मद्धिम पड़ गई.  गरीबी , अस्वास्थ्य, अशिक्षा दूर करने में अधिक प्रगति न हो सकी और सामाजिक मूल्यों का क्षरण बढ़ता गया.

आत्मलीन और संकुचित दृष्टि कुछ इस तरह पसरी कि चार दशक बीतते-बीतते सन्‌ 1984-1989 के दौरान देश के प्रधानमंत्री रहे युवा राजीव गांधी को यह स्वीकार करना पड़ा कि सौ पैसे में से पंद्रह पैसे ही अपने लक्ष्य तक पहुंच कर वास्तविक हितग्राही को मिल पाता है. शेष को बिचौलिये ही डकार जाते हैं. आगे चलकर हालत यह हो गई कि सरकार को सोना गिरवी रखना पड़ा.

फिर आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ.  साथ ही घोटालों और भ्रष्टाचार के मामले भी बढ़े. इस जटिल पृष्ठभूमि में हुए 2014 के लोकसभा के चुनाव बड़े निर्णायक साबित हुए. तब से लगातार आधार-संरचना, उत्पादन, निवेश और निर्यात आदि विभिन्न मोर्चों पर कमर कसी गई. तकनीकी प्रगति पर जोर दिया गया. योजनाओं का कार्यान्वयन सुनिश्चित करने का प्रयास तेज किया गया.

भ्रष्टाचार पर लगाम किसी गई. शिक्षा, कानून आदि के क्षेत्रों में कुछ जमीनी सुधार भी शुरू हुए. अब देश ने अमृत काल की यात्रा शुरू की है.  स्वतंत्र भारत 2047 में शताब्दी मनाएगा. नवोदित भारत अपने लिए नया मार्ग बना रहा है. विगत वर्षों में भारत विश्व समुदाय में अपनी स्वतंत्र और सशक्त पहचान स्थापित करने के लिए सक्रिय हुआ.

अब उसकी उपस्थिति की नोटिस ली जाती है और उसकी आवाज भी सुनी जाती है. जनहित की अनेक योजनाएं चलाई जा रही हैं जिनको गरीबों, किसानों और मजदूरों तक पहुंचाया जा रहा है.  डिजिटल अर्थव्यवस्था की पहल एक ठोस उपलब्धि है जिसने व्यापार व्यवसाय को पारदर्शी, सरल और सुभीता वाला बनाया है.

अतिशय गरीबी की स्थिति में निश्चित रूप से सुधार हुआ है. बहुत सारे पुराने कानून खत्म किए गए हैं.  भारत की सैन्य जरूरतों में इजाफा हुआ है. उसके समाधान के लिए भारत में ही इनके लिए साजोसामान बनाने की पहल हो रही है. शिक्षा में सुधार की महत्वाकांक्षी नीति अमल में लाई जा रही है.

दुर्भाग्य से भारत के पड़ोसी देशों के हालात टूटने बिखरने से अस्थिरता वाले हो गए और लोकतांत्रिक गतिविधियां कमजोर पड़ती गईं तथा उनकी जगह अराजक प्रवृत्तियां जोर पकड़ने लगीं. पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन की सीमाएं सतत चुनौती बनती रहीं और उनकी ओर से घुसपैठ, आतंक और अवांछित सैन्य कार्रवाई को अंजाम भी दिया जाता रहा है. इसलिए सामरिक तैयारी जरूरी है.

आंतरिक राजनैतिक परिवेश में तुष्टिकरण का बोलबाला हो रहा है.  साथ ही झूठ और फरेब भी बढ़ा है जिसके चलते अब नेताओं पर भरोसा करना कठिन हो रहा है. लोकतंत्र में क्षेत्रीय, भाषायी, जातीय और दलगत विविधता को संभालना आज एक बड़ी चुनौती सिद्ध हो रही है. चुनाव में धनबल और बाहुबल का उपयोग बढ़ने लगा है और अवांछित लोगों को भी राजनीति में प्रवेश मिलने लगा है.

ऐसे में लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं को सुदृढ़ करना ही एकमात्र विकल्प है. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में विशाल जनसंख्या के हिसाब से प्रभावी कदम उठाने होंगे, तभी यह युवा देश उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ सकेगा. इन सबके बावजूद भारत देश की जिजीविषा अप्रतिम है. औपनिवेशिक राज, विभाजन, युद्ध और आतंक सभी के साथ आगे बढ़ते हुए भारत स्वायत्त देश है.

वह आज किसी अन्य देश के प्रति समर्पित नहीं है. डिजिटल अर्थव्यवस्था के साथ अनेक सुधारों की शुरुआत हुई है और भारत चौथी अर्थव्यवस्था बन चुका है. वह अपनी राह किसी के कहे के अनुसार नहीं बल्कि अपने विवेक से चुनता है. भारत जग रहा है और यह अनुभव कर रहा है कि प्रगति की परिभाषा पश्चिम से उधार लेकर भला नहीं कर सकेगी.

पश्चिम जैसा ही बनना भारत की नियति नहीं हो सकता. इस प्राचीनतम सभ्यता का विशाल लोकतांत्रिक कारवां पश्चिम से पुष्टि नहीं चाहता. गरिमा के साथ स्वावलंबन, स्वायत्त व्यवस्था और गुणवत्तापूर्ण जीवन ही उसका ध्येय हो सकता है. स्वदेशी से ही स्वराज सही अर्थों में स्थापित होगा.  

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