इसे विडंबना ही कहेंगे कि अब भी राजभाषा का दर्जा हासिल होने के बावजूद अपनी हिंदी गैर हिंदीभाषी क्षेत्रों में राजनीतिक विरोध का जरिया है. संसद के मौजूदा शीत सत्र में पारित ‘भारतीय वायुयान विधेयक’ के विरोध में गैर हिंदीभाषी सांसद मुखर हो गए थे, क्योंकि विधेयक का नाम हिंदी में है. ऐसे माहौल में सात साढ़े सात हजार किलोमीटर दूर विलायती धरती से हिंदी को लेकर सुखद खबर आई है.
जिस ब्रिटेन ने भारत को करीब दो साल तक गुलाम रखा, जिसके शासन की वजह से हिंदी देसी धरती पर अब तक अपना वाजिब आसन नहीं हासिल कर पाई है, उसी ब्रिटेन में हिंदी में सरकारी कामकाज किए जाने की मांग उठी है. जिसे दुनिया ब्रिटेन के नाम से जानती है, उस यूनाइटेड किंगडम का स्कॉटलैंड द्वीपीय प्रांत है.
इसी प्रांत की स्थानीय संसद के भारतीय मूल के सांसद ने सार्वजनिक संदेश भेजने के लिए हिंदी का भी इस्तेमाल किए जाने की मांग रखी है. स्कॉटलैंड की स्थानीय संसद में ग्लास्गो से डॉक्टर संदेश गुल्हाने सांसद हैं. ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा में ग्लास्गो में चिकित्सक संदेश का तर्क है कि चूंकि 2022 की जनगणना के लिहाज से स्कॉटलैंड में भारतीय मूल के लोगों की जनसंख्या दूसरे नंबर पर है.
लिहाजा यहां के सार्वजनिक संदेश और स्वास्थ्य जानकारियां हिंदी में भी भेजे और प्रसारित किए जाने चाहिए. डॉक्टर गुल्हाने की मांग पर स्कॉटलैंड की सरकार की राय जानने से पहले हमें जानना चाहिए कि अगर भारत में ऐसी मांग किसी गैर हिंदीभाषी राज्य में उठी होती तो वहां के राजनेताओं की प्रतिक्रिया क्या होती?
निश्चित तौर पर उस गैर हिंदीभाषी इलाके की राजनीति का एक बड़ा हिस्सा इस मांग के खिलाफ उठ खड़ा होता. सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश होती कि इस मांग को स्वीकार ही नहीं किया जाए. दिलचस्प यह है कि उनकी इस मांग के समर्थन में हिंदीभाषी इलाकों की प्रगतिशील सांस्कृतिक और राजनीतिक ताकतें भी उतर आतीं.
गैर हिंदीभाषी इलाकों के लोग इसे हिंदी का साम्राज्यवाद या वर्चस्ववाद बाद में बताते, हिंदीभाषी इलाकों की कुछ बौद्धिक और राजनीतिक ताकतें इसे वर्चस्ववादी मांग बताकर खारिज करने का सुझाव पहले रख देतीं. लेकिन स्कॉटलैंड में ऐसा कुछ नहीं हुआ. इसकी एक बड़ी वजह यह है कि स्कॉटलैंड या ऐसी दूसरी विदेशी जगहों पर न सिर्फ भारतीय मूल, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप, जिसमें बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान और कुछ हद तक अफगानिस्तान तक शामिल है, के लोग आपसी संवाद या संपर्क के लिए ज्यादातर हिंदी का ही प्रयोग करते हैं.
वह हिंदी निश्चित तौर पर भारत की खड़ी बोली हिंदी नहीं होती. उसमें उन लोगों की स्थानीय भाषाओं के साथ ही अंग्रेजी या उस देश विशेष की भाषा का भी पुट शामिल होता है, जिस देश में वह समूह रहता या नौकरी करता है. इससे कह सकते हैं कि भारत की सीमाओं के बाहर भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक हिंदी भी है.
शायद इसीलिए गैर हिंदीभाषी इलाके की संतान संदेश गुल्हाने को भारतीयों के बीच सार्वजनिक सूचनाओं के सहज प्रसार के लिए हिंदी की ही याद आई. वे चाहते तो किसी अन्य भारतीय भाषा का भी जिक्र कर सकते थे. पर उन्होंने ऐसा नहीं किया.