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ब्लॉग: भविष्य का वैश्विक ऊर्जा संकट नजदीक आ रहा है, भारत को बनना होगा आत्मनिर्भर

By अजय सिंह | Published: March 27, 2023 2:49 PM

हमारा जीवन आज के दौर में पूरी तरह से उर्जा पर निर्भर हो गया है। एक शोध के अनुसार दुनियाभर में पारंपरिक तेल भंडार 50 और प्राकृतिक गैस भंडार 70 वर्षों के आसपास ही बचे हैं। ऐसे में सवाल है कि हम भविष्य के लिए कितने तैयार है और क्या आने वाली चुनौतियों के निपटने की तैयारी है?

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कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश में बिजली कर्मचारियों के हड़ताल से बिजली आपूर्ति कुछ घंटों के लिए बाधित हो गई थी। उन कुछ घंटों मात्र में ही जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। सुबे में चारों ओर हाहाकार सा मचा था। इससे इस बात को समझा जा सकता है कि आज की इस तकनीकी दुनिया में हम ऊर्जा पर कितने आश्रित हो चुके हैं। क्योंकि किसी भी तरह की तकनीकी को संचालित करने के लिए ऊर्जा की जरूरत तो पड़ेगी ही। 

हालांकि हड़ताल के समाप्त होते ही जनजीवन फिर से पटरी पर लौट आया, लेकिन इस हड़ताल से उपजी समस्याएं, आने वाले दशकों के उस ऊर्जा संकट को लेकर आगाह करता हैं, जिसके लिए दुनियाभर के देशों को तैयारियां शुरू कर देनी चाहिए। क्योंकि दुनिया में तकनीकी और औद्योगीकरण जितनी तेजी से बढ़ेगी, ऊर्जा की मांग भी उतनी ही तेजी से बढ़ेगी। उस लिहाज से आने वाले एक दशक के भीतर ऊर्जा संकट पूरी दुनिया के लिए एक चुनौती बनने वाली है। उस वक्त जो देश ऊर्जा आपूर्ति के मामले में जितना आत्मनिर्भर होगा, वह नीतिगत मामलों में भी उतना ही स्वतंत्र होगा।    

लेकिन सवाल यह उठता है कि कोई भी राष्ट्र ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर कैसे होगा। क्योंकि शोध के अनुसार दुनियाभर में पारंपरिक तेल भंडार 50 और प्राकृतिक गैस भंडार 70 वर्षों के आसपास ही बचे हैं। जबकि कोयला दो सदी तक की खपत के लिए अवशेष है। यानी हमारे पास पारंपरिक ऊर्जा के स्रोत सीमित ही शेष हैं। और हम नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोतों को इस्तेमाल करने की ऐसी व्यापक तकनीकी अभी तक विकसित नहीं कर पाएं हैं, जिसकी जरूरत थी। 

इसके साथ ही ग्लोबल वार्मिंग की वज़ह से दुनियाभर के देशों के बीच बढ़ रही चिंता को ध्यान में रखते हुए हमें पारंपरिक ऊर्जा के इन स्रोतों की खपत, इनके ख़त्म होने से पहले ही बंद कर देनी होगी। हम इस बात का इंतज़ार नहीं कर सकते कि पारंपरिक ऊर्जा के स्रोत पूरी तरह से ख़त्म हों, तब हम अपने वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों की तकनीकी को विकसित करें। उस लिहाज से दुनिया के पास तकनीकी विकसित करने के लिए समय बहुत कम बचा है।  

पेरिस समझौते की दिशा में संतोषजनक प्रगति नहीं

संयुक्त राष्ट्र में दुनियाभर के देशों के बीच कार्बन उत्सर्जन कम करने के संकल्प के बावजूद वैकल्पिक ऊर्जा तकनीकी की दिशा में कोई प्रभावशाली प्रगति नहीं हुई। यह विषय इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि 2015 में दुनियाभर के देशों द्वारा सर्वसम्मति से किया गया पेरिस समझौता अपने लक्ष्य से दूर होता दिख रहा है। जिसमें सदी के अंत तक वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखना और वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 °C तक सीमित रखना शामिल है।

लेकिन यह लक्ष्य भी सिर्फ कागजी सहमति मात्र होता दिख रहा है। क्योंकि दुनिया के देशों के बीच एक तरफ तो कार्बन उत्सर्जन की कटौती को लेकर मतभेद बना हुआ है और दूसरी तरफ वैकल्पिक ऊर्जा के श्रोतों से व्यापक पैमाने पर ऊर्जा निर्मित करने की दिशा में उतनी तत्परता से तकनीकी निर्मित नहीं हो रही है, जिसकी उम्मीद की जानी चाहिए।

दरअसल वैकल्पिक तकनीकी विकसित करने के लिए देशों को भारी पूंजी निवेश की ज़रूरत है और हर देश इसके लिए तैयार नहीं है। विकासशील देशों का आरोप है कि विकसित देशों ने पिछली सदी में अपने औद्योगिक विकास और संपन्नता के लिए बेतहाशा कार्बन उत्सर्जन किये और आज दुनिया को जलवायु संकट के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिये। अब पश्चिमी देश खुद तो संसाधन संपन्न हो गये लेकिन विकासशील देशों, जो अभी गरीबी से लड़ रहे हैं, उनके ऊपर वो अपने किय-धरे को संतुलित करने के लिए पर्यावरण की जिम्मेदारियां सौंप रहे हैं। यह तर्क बहुत हद तक सही भी है। और भारत इस तर्क से समर्थन में मजबूती से खड़ा रहा है।  

बढ़ रहा है समुंदर का तापमान

गौर करने वाली बात यह है कि सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले चीन ने 2060 तक खुद को शून्य कार्बन उत्सर्जक बनाने की घोषणा है। शून्य कार्बन उत्सर्जन, यानी जितना भी कार्बन कोई देश उत्सर्जित करे, उस देश के पर्यावरण द्वारा वह पूरा का पूरा कार्बन सिंक कर लिया जाए, अवशोषित कर लिया जाए। ताकि वह पर्यावरण में ग्लोबल वार्मिंग की वज़ह न बने। लेकिन समस्या यह है कि पेरिस समझौते के बाद से अबतक दुनिया के देशों ने घोषणाएं तो खूब की हैं लेकिन ग्लोबल वार्मिंग पर नियंत्रण न पाना बताता है कि देशों की प्रतिबद्धता में कमी है। 

पेरिस समझौते में सदी के अंत तक धरती के तापमान को औद्योगिक युग से पूर्व के ताप की तुलना में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का निर्णय भले लिया गया और इसके लिए दुनियाभर के देशों ने सहमति भी जताई थी। लेकिन अबतक दुनिया का तापमान 1.1 डिग्री तक बढ़ चुका है। और अगर पेरिस समझौते पर खरा उतरना है तो 2030 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 45 प्रतिशत तक की कटौती करनी होगी। इसके साथ ही वैज्ञानिक बताते हैं कि समुद्र को तापमान गहराई तक बढ़ गया है। यह अपने आप में खतरे की घंटी है। 

समुद्र का तापमान गहराई तक बढ़ने का मतलब है आने वाले दशकों या फिर सदियों तक ग्लेशियर्स का पिघलना चालू रहेगा क्योंकि जल न तो जल्दी गर्म होता है और एक बार गर्म हो गया तो जल्दी ठंडा भी नहीं होता है। इसलिए गहराई तक समुद्र का ताप बढ़ना खतरे की घंटी है। समुद्र का जलस्तर बढ़ने का मतलब है तटवर्ती शहरों का डूबना, जो की अर्थव्यवस्था को सीधे तौर पर प्रभावित करेगा।  

न्यूजीलैंड में "जीरो कार्बन" बिल पारित

अन्य देशों की तरह न्यूजीलैंड ने भी इस दिशा में पहल की है। न्यूजीलैंड ने पेरिस जलवायु समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाते हुए वर्ष 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए एक "ज़ीरो कार्बन" बिल पारित किया है। वहां की सरकार ने वादा किया है कि आने वाले 10 वर्षों के भीतर वह देश में एक अरब पौधे लगाएगी और न्यूजीलैंड मीथेन को छोड़कर किसी भी अन्य ग्रीनहाउस गैस को उत्सर्जन नहीं करेगा। 

इसके साथ ही न्यूजीलैंड में साल 2035 तक बिजली ग्रिड पूरी तरह से नवीकरणीय ऊर्जा से संचालित करने का लक्ष्य रखा गया है। वहीं दूसरी ओर चीन ने आगामी 40 वर्षों के भीतर (2060 तक) शून्य कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य भले ही रखा है। लेकिन ये सारे लक्ष्य हासिल हो पाएंगे या नहीं, इसपर संदेह है। क्योंकि एक तरफ तो चीन अपने व्यापार मुनाफे को बढ़ाने के लिए लगातार औद्योगिक शीतयुद्ध लड़ रहा है।

कोयले की खपत के मामले में भी चीन दुनिया में सबसे आगे है। ऐसे में शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने का मतलब है कि वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत विकसित किये जाएं जिसके लिए भारी-भरकम निवेश की ज़रूरत होगी। और ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा है। क्योंकि चीन अभी भी तेजी से कोयले की खपत कर रहा है।  

भारत लगातार दिखा रहा है प्रतिबद्धता 

विकासशील होने के चलते खासतौर से भारत और दक्षिण एशियाई देशों के समक्ष यह एक बड़ी चुनौती बन सकती है। भारत के पास वैकल्पिक ऊर्जा के पर्याप्त भंडार हैं और भारत उसकी उपयोगिता बढ़ाने के लिए तेजी से आगे भी बढ़ रहा है। साथ ही पर्यावरण के संरक्षण को लेकर लगातार प्रतिबद्ध भी रहा है। पर्यावरण के प्रति भारत की गंभीरता को इस बात से भी समझा जा सकता है कि पिछले कई सालों से प्रत्येक वर्ष ग्रीन एनर्जी और इकोफ्रैंडली होने की दिशा में लगातार सार्वजनिक निवेश किये गये हैं।

भारत ने ग्रीन जॉब और ग्रीन डेवलपमेंट की संकल्पना पर काफी काम किया है। उसे अपने बजट में भी प्रमुखता से जगह दिया है। सौर विनिर्माण को प्रोत्साहित करना, इथेनॉल सम्मिश्रण, कोयला गैसीकरण, पीएम कुसुम योजना, रूफटॉप सौर योजना इत्यादि भारत द्वारा ग्रीन डेवलपमेंट की दिशा में किये गये महत्वपूर्ण प्रयास हैं।

इसके अलावा देश में अक्षय ऊर्जा का उत्पादन, अर्थव्यवस्था में जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को कम करना और अर्थव्यवस्था को गैस आधारित बनाना इत्यादि भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं। लेकिन भारत भी अभी तक उस स्तर की तकनीकी विकसित नहीं कर पाया है कि वह जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को खत्म कर सके।  

क्या है समाधान?

चूंकि पूरी दुनिया में दिन प्रतिदिन ऊर्जा की मांग व खपत बढ़ती ही जाएगी, इसलिए दुनिया के सभी देशों के लिए यह आवश्यक है कि वो जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता खत्म करके अक्षय ऊर्जा पर निर्भर हों। और पर्यावरण जैसे साझे विषयों पर हुई संधियां अपने लक्ष्य तक तभी पहुंच पाएंगी, जब न्यायपूर्ण तरीके से समझौते होंगे। इसके लिए मतभेदों और असंतोष को खत्म करना होगा।

इसलिए यह आवश्यक है कि पर्यावरण से संबंधित किसी भी तरह के समझौतों को दुनिया के सभी देशों पर एक समान रूप से लागू न किया जाए। इसकी बजाय न्यायपूर्ण रास्ता अपनाया जाए और विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को न सिर्फ कुछ रियायतें दी जाएं बल्कि उन्हें अक्षय ऊर्जा संबंधी उन्नत तकनीकी विकसित करने के लिए तकनीकी और वित्तीय मदद उपलब्ध कराई जाए।

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