गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: भविष्य के भारत का आधार शिक्षा पर निर्भर

By गिरीश्वर मिश्र | Published: February 5, 2020 07:16 AM2020-02-05T07:16:01+5:302020-02-05T07:16:01+5:30

इस तरह की कामचलाऊ व्यवस्था में जहां स्थानीय समस्याओं और देशज ज्ञान की उपेक्षा हो रही है, वहीं दूसरी ओर  संस्थाओं के अनियंत्रित विस्तार से गुणवत्ता के नियंत्नण की समस्या भी खड़ी हो रही है. प्रचलित व्यवस्था में  वर्षो से लगातार आ रहे तरह-तरह के  व्यवधानों के कारण थकान और तनाव के लक्षण भी उभर रहे हैं.

Girishwar Mishra's blog: India's future depends on education | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: भविष्य के भारत का आधार शिक्षा पर निर्भर

गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: भविष्य के भारत का आधार शिक्षा पर निर्भर

आर्थिक रूप से समृद्ध, स्वस्थ और वैश्विक प्रगति के मानकों पर आगे बढ़ने के लिए पूरा देश जिस भारत का स्वप्न देख रहा है उसकी प्रमुख आधारशिला शिक्षा ही है. खास तौर पर आज के दौर में जब ज्ञान को लेकर पूरे विश्व में होड़ मची हुई है और सभी विकसित देश नए - नए ज्ञान क्षेत्नों में आगे बढ़ रहे हैं, हमें  राष्ट्रीय योजना में शिक्षा की वरीयता के प्रश्न को नहीं टालना चाहिए.

आज ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्नों में उपलब्ध ज्ञान के प्रौद्योगिकी में रूपांतरण पर ही सारा विकास टिका हुआ है. ज्ञान के विकास के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक रूप से हुए शोध कार्यो का मूल्यांकन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भारत और विकसित देशों के बीच ज्ञान का बड़ा अंतराल (नॉलेज गैप) मौजूद है और समय पर अपेक्षित ध्यान न देने के कारण यह अंतराल दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है. परिणाम यह हो रहा है कि वैश्विक स्तर पर अधिकांश ज्ञान- क्षेत्नों में हम प्राय: विदेशी शोध कार्यो का अनुगमन और अनुकरण ही कर रहे हैं तथा नवोन्मेष व नवाचार के प्रश्न गौण होते जा रहे हैं.

इस तरह की कामचलाऊ व्यवस्था में जहां स्थानीय समस्याओं और देशज ज्ञान की उपेक्षा हो रही है, वहीं दूसरी ओर  संस्थाओं के अनियंत्रित विस्तार से गुणवत्ता के नियंत्नण की समस्या भी खड़ी हो रही है. प्रचलित व्यवस्था में  वर्षो से लगातार आ रहे तरह-तरह के  व्यवधानों के कारण थकान और तनाव के लक्षण भी उभर रहे हैं. चूंकि अध्ययन और अनुसंधान एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है, इसलिए व्यवधानों का संस्थाओं के कार्यकलाप पर संचयी असर पड़ता है जिसकी कभी भी भरपाई नहीं की जा सकती.

आज दिल्ली समेत अनेक विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में वर्षो से चल रही तदर्थ (एडहॉक) शिक्षकों की त्नासदी इसका एक ज्वलंत उदाहरण है. शिक्षा क्षेत्न की स्वायत्तता लगातार घटती जा रही है और संसाधनों की लगातार कटौती हो रही है. ऐसे में  जब हम सामान्य व्यवस्था भी नहीं सुनिश्चित कर पा रहे हैं, विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय का स्वप्न कैसे पूरा कर सकेंगे? यह सोचना एक दुरभिलाषा ही कहा जाएगा.
आज शिक्षा के  प्रयोजन, उसकी उपयुक्तता और उपयोगिता को लेकर सर्वत्न गहरा असंतोष व्याप्त हो रहा है.

उच्च शिक्षा पा रहे बहुसंख्यक छात्न-छात्नाओं के मन में अपने भविष्य को लेकर शंका बनी हुई है. एक दिशाहीनता की स्थिति उनका मनोबल गिरा रही है. यह भी गहरी चिंता का विषय है कि पढ़ कर निकलने वाले ज्यादातर स्नातक नौकरी न पाकर बेरोजगार हैं. नौकरी के लिए जरूरी कौशलों की दृष्टि से उनकी पात्नता को लेकर भी प्रश्न खड़े होते रहते हैं. इन सब प्रश्नों को लेकर कोई ठोस कोशिश नहीं हो रही है और समाधान नजर नहीं आ रहा है. आर्थिक रूप से समर्थ अभिभावक अपने बच्चों को अब विदेशों में पढ़ने को  भेजने लगे  हैं जिस पर हजारों करोड़ रु. व्यय होता है और वह सब विदेश में जाता है.

वास्तविकता यही है कि वर्तमान में शिक्षा पर अनेक आंतरिक और बाह्य दबाव कार्य कर रहे हैं जिसके कारण उसकी व्यवस्था असंतुलित है  और उदासीनता के कारण चरमरा रही है. वह स्वायत्त न रह कर बहुत सारी असंबद्ध परिस्थितियों का मुंह जोहती रहती है. सरकारें इसे अपने लिए साधन मानती हैं और अपनी पसंद के मुताबिक अध्यापक, पाठ्यक्र म और परीक्षा की व्यवस्था करने के लिए उतावली रहती हैं. इसके फलस्वरूप सरकार बदलने के साथ शिक्षा का एजेंडा बदल जाता है और शिक्षा सरकार की प्रयोगशाला बन जाती है.

ऐसे में जरूरी प्रश्न मुंह बाए ज्यों-के-त्यों खड़े रहते हैं. आज प्राइमरी से उच्च शिक्षा संस्थाओं तक को अध्यापकों और आवश्यक सुविधाओं का इंतजार  है जो अंतहीन हुआ जा रहा है. शिक्षार्थियों की निरंतर बढ़ती संख्या इस परिस्थिति को और जटिल बनाती जा रही है. अनुमान है कि यह संख्या निकट भविष्य में तीव्रता से बढ़ेगी. इस दृष्टि से कई तरह की तैयारियों की जरूरत होगी जिसके लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने होंगे.

आज व्यावहारिक स्तर पर भारतीय शिक्षा अनेक श्रेणियों और कोटियों में बंटी हुई है. सरकारी और गैरसरकारी या निजी उच्च शिक्षा  के संस्थानों में सुविधा, गुणवत्ता, फीस की दर और पाठ्यक्रम आदि को लेकर इतनी विविधता है कि उसे अराजकता कहना ही ज्यादा उपयुक्त होगा.

प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के स्कूलों में भी ऐसी ही विविधता व्याप्त है. कहने को बाल्यावस्था में मुफ्त शिक्षा सबको मुहैया करना सरकार का संकल्प और नीति है परंतु पूरे देश में यह सबसे महंगी और अभिभावकों के लिए सिरदर्द हो चुकी है. आगे की ऊंची कक्षाओं में  अध्ययन में सफलता सिर्फ विद्यालय की पढ़ाई से संभव नहीं है. उसके लिए कोचिंग और ट्यूशन जरूरी हो चुका है. ऐसे ही हम मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था को लागू कर पाने में सफल नहीं हुए हैं.

दुर्भाग्य से भारत में शिक्षा को वरीयता न देकर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का बहुत कम अंश (2 से 3 प्रतिशत) ही लगाया जाता रहा है जबकि उसे 6 प्रतिशत करने के लिए बार-बार कहा जाता रहा है. भविष्य के भारत के निर्माण के लिए शिक्षा में निवेश पर गंभीरता से विचार जरूरी है. शिक्षित समाज ही अपनी सक्रि य भागीदारी से भारत के लोकतंत्न को सशक्त बना सकेगा.

Web Title: Girishwar Mishra's blog: India's future depends on education

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