आखिर पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का पता चल ही गया. जब से उन्होंने पद से इस्तीफा दिया था, वह जैसे कहीं गायब ही हो गए थे. चिंता उनकी कथित बीमारी को लेकर भी थी. भला हो राजस्थान विधानसभा के सचिवालय का, जिसके सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि पूर्व उपराष्ट्रपतिजी ने अपनी पेंशन बहाल किए जाने के लिए आवेदन किया है! मीडिया से मिली जानकारी के अनुसार धनखड़जी 1993 से लेकर 1998 तक राजस्थान में विधायक थे. जब से उन्हें राज्यपाल बनाकर बंगाल भेजा गया था, उनकी पेंशन बंद हो गई थी,
अब राज्यपाल और उपराष्ट्रपति पद से हटने के बाद वे फिर से अपनी विधायकी वाली पेंशन लेने के हकदार हो गए हैं. उन्हें प्रति माह कम से कम 42 हजार रुपए मिलेंगे. उपराष्ट्रपति पद से जुड़े लाभ अलग से. और हां, विधायकों-सांसदों को मिलने वाली पेंशन-राशि पर आयकर भी नहीं देना पड़ता. यही नहीं उनकी पेंशन से जुड़ी एक और बात भी कम हैरान करने वाली नहीं है.
मान लो कोई विधायक आगे चलकर सांसद भी बन जाता है तो उसे सांसद वाली पेंशन भी मिलेगी– यानी दुहरी पेंशन. और यदि कोई एक से अधिक बार विधायक अथवा सांसद निर्वाचित होता है तो वह आवृत्ति के अनुपात में दुहरी या तिहरी पेंशन पाने का अधिकारी बन जाएगा! सवाल उठता है जनसेवा के नाम पर राजनीति में आने वालों को पेंशन मिलने का आधार क्या है?
जन-प्रतिनिधियों की इस पेंशन पर पुनर्विचार होना ही चाहिए. पहली बात तो यह कि विधायकी-सांसदी समाप्त होने के बाद पेंशन क्यों? इस आशय के कुछ सुझाव भी आए हैं कि एक से अधिक पेंशन तत्काल बंद हो. पर यह सवाल तो फिर भी उठेगा ही कि जनसेवा कोई नौकरी नहीं है.
और नौकरी के लिए कुछ अर्हताएं होती हैं, हमारे जनसेवक तो किसी भी अर्हता से नहीं बंधे. ऐसे में उन्हें पेंशन का औचित्य सहज ही समझ में नहीं आता. प्रधानमंत्री के आह्वान पर लाखों लोगों ने रसोई गैस की सब्सिडी लेना बंद कर दिया था. हमारे राजनेता ऐसा कोई उदाहरण प्रस्तुत क्यों नहीं कर सकते?
हमारी राजनीति में कहीं तो कोई स्थान तो शुचिता के लिए हो. राजनीति व्यवसाय नहीं है, सेवा है. कुछ बलिदान का, उत्सर्ग का, भाव का होना चाहिए सेवा में. सेवा के नाम पर चल रहे व्यवसाय को अब विनियमित करने की आवश्यकता है.