राजनीति के अखाड़े में खेती के दांव-पेंच, गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग
By गिरीश्वर मिश्र | Published: December 16, 2020 12:25 PM2020-12-16T12:25:22+5:302020-12-16T15:14:52+5:30
स्वामीनाथन आयोग ने महत्वपूर्ण सुधार सुझाए थे. चूंकि किसान का वोट सरकार बनाने के लिए जरूरी है इसलिए किसान पर हर किसी दल की नजर रहती है.
किसान आंदोलन को लगभग तीन सप्ताह हो रहे हैं और गतिरोध ऐसा है कि जमी बर्फपिघलने का नाम ही नहीं ले रही है. खेती-किसानी के सवालों को लेकर राजधानी दिल्ली को चारों ओर से घेर कर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से चलकर आए हजारों किसानों का केंद्रीय सरकार के कानूनों के खिलाफ धरना-आंदोलन बदस्तूर जारी है.
भारत अभी भी मुख्यत: एक कृषिप्रधान देश है और जीवन की धुरी खेती-किसानी ही है. इसके बावजूद किसानों का शोषण भारतीय समाज की एक ऐसी दुखती रग है जिसके लिए बहुआयामी सुधारों की जरूरत बहुत दिनों से महसूस की जाती रही है. स्वामीनाथन आयोग ने महत्वपूर्ण सुधार सुझाए थे. चूंकि किसान का वोट सरकार बनाने के लिए जरूरी है इसलिए किसान पर हर किसी दल की नजर रहती है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसानों को आगे कर जो तर्क दिए जा रहे हैं और व्यवस्था दी जा रही है वह तथ्यों से परे है. यह बात भी स्पष्ट हो रही है कि कानूनों को बनाते समय किसानों के साथ जरूरी मशविरा नहीं किया गया और उन्हें विश्वास में नहीं लिया गया था.
सरकार किसानों तक अपना पक्ष पहुंचाने में अपेक्षित रूप में सफल नहीं हो सकी. सरकार की रीति-नीति को लेकर जनता के भ्रम जिस तरह बार-बार टूटते रहे हैं उनसे विश्वास और भरोसे की खाई दिनों-दिन बढ़ती गई है. यह भी सच है कि अक्सर विकास की परिकल्पना में कृषि और गांव हाशिये पर ही रहे हैं.
किसानों की मांगें देखें तो पता चलता है कि वे इन बातों पर अड़े हुए हैं: सभी फसलों की सरकारी खरीद और एमएसपी का मिलना सुनिश्चित होना चाहिए. एमएसपी को स्वामीनाथन आयोग की रपट के मुताबिक तय होना चाहिए.
कृषि क्षेत्न में प्रयुक्त डीजल की कीमत में पचास प्रतिशत की कमी हो. एनसीआर और उससे लगे इलाकों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन से जुड़ा अध्यादेश रद्द किया जाए. अंत में आंदोलनों से जुड़े तरह-तरह के लोगों की रिहाई होनी चाहिए. किसान प्रतिनिधियों को सरकारी प्रस्तावों में प्रच्छन्न रूप से कॉर्पोरेट की राह खोलने का अवसर दिख रहा है.
निजी मंडी को ले कर कई शंकाएं भी बनी हुई हैं. सरकार ने जो प्रस्ताव भेजे हैं वे किसानों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे हैं. ऊपरी तौर पर वे प्रस्ताव किसान की चिंता को दूर करते दिख रहे हैं, परंतु निजीकरण के संशय का निवारण नहीं हो पा रहा है. सरकारी आश्वासन किसानों को भरोसेमंद नहीं लग रहा है. किसान अन्नदाता हैं और देश की समृद्धि के लिए किसानों की मुसीबतों का प्राथमिकता से समाधान किया जाना जरूरी है.