अभिलाष खांडेकर ब्लॉग: कालजयी हैं डॉ. बाबासाहब आंबेडकर

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: December 27, 2024 06:41 IST2024-12-27T06:41:44+5:302024-12-27T06:41:49+5:30

आज की गरमागरम बहस इस बात पर है कि क्या कांग्रेस ने उनके साथ बुरा व्यवहार किया या फिर भाजपा उनके पदचिन्हों पर चल रही है.

Dr. Babasaheb Ambedkar is timeless | अभिलाष खांडेकर ब्लॉग: कालजयी हैं डॉ. बाबासाहब आंबेडकर

अभिलाष खांडेकर ब्लॉग: कालजयी हैं डॉ. बाबासाहब आंबेडकर

आप उन्हें पसंद करें चाहे नहीं, आप उनकी दलित समर्थक की भूमिका को खारिज कर सकते हैं और जाति के उन्मूलन के उनके प्रसिद्ध सिद्धांत के खिलाफ भी जोरदार तर्क दे सकते हैं, लेकिन आप निश्चित रूप से उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते.

जी हां, मैं डॉ. भीमराव आंबेडकर की बात कर रहा हूं. महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ वे नि:संदेह भारतीय राजनीति के सदाबहार नायक रहे हैं.

ये तीनों बड़े कद के नेता लगभग एक ही युग के थे, लेकिन इनके व्यक्तित्व में काफी अंतर था जिसके चलते भारत और विदेशों में विभिन्न वर्गों में इनके बहुत बड़े पैमाने पर अनुयायी थे.

गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद एक देसी राजनेता बन गए, उन्होंने गांवों के हित में काम किया और ब्रिटिश शासन के दौरान ‘स्वराज’ के लिए आवाज उठाई. वे अहिंसा के पक्षधर थे, लेकिन एक हिंदू कट्टरपंथी ने उनकी हत्या कर दी और इसके लिए आज भी भाजपा और आरएसएस को दोषी ठहराया जाता है.

तीनों में से नेहरू ज्यादा आधुनिक थे और उन पर यूरोपीय संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव था. वे स्टाइलिश थे;  पढ़े-लिखे थे; उनके पहनावे से उनके उच्च वर्ग का पता चलता था और बेशक, वे अशांत समय में एक लोकप्रिय प्रधानमंत्री थे. नरेंद्र मोदी दो मामलों में नेहरू से मुकाबला कर सकते हैं: लोकप्रियता और पहनावे के मामले में. दोनों ने प्रधानमंत्री के उच्च पद पर लगातार तीन कार्यकाल पूरे किए हैं, लेकिन इसके अलावा उनके बीच कुछ खास समानता नहीं है. खैर, यह स्तंभ मोदी के बारे में नहीं है.

यह डॉ. आंबेडकर के बारे में है जो अपनी मृत्यु के छह दशक बाद भी समय-समय पर भारत के राजनीतिक गलियारों में गरमा-गरम चर्चा के केंद्र बन जाते हैं.

तीनों दिग्गज नेता, जो आजादी से पहले और उसके बाद भी कांग्रेस से जुड़े रहे, आज भी सुर्खियों में हैं. नेहरू समय बीतने के साथ शायद गुमनामी  में चले जाते, लेकिन भाजपा की बदौलत उन्होंने 2014 से एक शक्तिशाली वापसी की है. वरना स्वर्गीय नेहरू हमारी इतिहास की किताबों में ही दफन रह जाते.

डॉ. आंबेडकर के मामले में ऐसा नहीं है. जब तक संसद के अंदर और बाहर भारतीय राजनीति और जाति पर बहस जारी रहेगी, तब तक वे और गांधी दोनों प्रासंगिक बने रहेंगे.

गृह मंत्री अमित शाह, उनके संभाषण के लेखकों और गृह मंत्रालय के अधिकारियों की बदौलत आंबेडकर फिर से चर्चा में वापस आ गए हैं... शायद भारत में राजनीति की वर्तमान स्थिति पर स्वर्ग से जबरन मुस्कुराते हुए.

डॉ. आंबेडकर ऊंचे दर्जे के विद्वान थे (उन्होंने एक बार मुंबई में अपने घर के अपने निजी ग्रंथालय को समाहित करने के लिए अपना घर बदल लिया था) और भारत के लिए उनके योगदान पर चर्चा करने वाले आज के नेताओं  की तुलना में निश्चित ही बहुत बेहतर राजनीतिज्ञ थे- चाहे वे भाजपा में हों या कांग्रेस में. महार जाति की अपनी बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि के बावजूद, वे बैरिस्टर बने.

इस गरीब लड़के को बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने स्कूल और कॉलेज की शिक्षा के लिए सहायता की. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि डॉ आंबेडकर एक मेहनती छात्र थे, जिनकी देश के लिए सकारात्मक महत्वाकांक्षाएं थीं. उन्हें सत्ता का लालच नहीं था, आज जैसा.

उन्होंने न केवल कानून और अर्थशास्त्र में महारत हासिल की, बल्कि समाजशास्त्र के भी अच्छे ज्ञाता थे. वैश्विक मामलों से वाकिफ थे, कई पुस्तकों और निबंधों के वास्तविक लेखक थे (आज के राजनेताओं जैसे नहीं ) और अंत में, उन्हें पता था कि आने वाले दशकों में भारत को एक नियमबद्ध राष्ट्र के रूप में विकसित होने के लिए क्या चाहिए. इसलिए उन्होंने नए राष्ट्र के लिए एक ठोस संविधान का मसौदा तैयार किया और एक सदाबहार नायक बन गए. उन्होंने ऐसे समय में अपने मजबूत अनुयायी बनाए जब टीवी चैनल नहीं थे. उन्होंने बदले में वोट मांगे बिना दलितों के हित के लिए काम किया, जो उनकी महानता थी.

आज वैसे लोग कहां हैं? वर्ष 1935 में लाहौर में एक सम्मेलन के लिए लिखे गए उनके प्रतिष्ठित निबंध ‘जाति का विनाश’ (जो सम्मेलन कभी हुआ ही नहीं), में जाति व्यवस्था के खिलाफ व्यापक रूप से तर्क दिया गया था, इस तथ्य के बावजूद कि महार ने एक ब्राह्मण शारदा कबीर (उनकी दूसरी पत्नी) से विवाह किया था. इसे भारत में प्रचलित जाति व्यवस्था का एक शानदार और तीखा आलेख माना जाता है. 75 साल बाद किसी भी सरकार के लिए यह बहुत बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन में योग्यता नहीं बल्कि जातिवाद हावी हो रहा है.

हर चुनाव जाति के आधार पर लड़ा जा रहा है, सभी दलों द्वारा. अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम चरण में आंबेडकर का हिंदू धर्म से मोहभंग हो गया था, जिसके कारण उन्होंने अपनी पत्नी के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया था. यह बात इतनी प्रसिद्ध है कि इसे दुहराने की जरूरत नहीं है. लेकिन भाजपा के लिए एक सीख भी है. आज की गरमागरम बहस इस बात पर है कि क्या कांग्रेस ने उनके साथ बुरा व्यवहार किया या फिर भाजपा उनके पदचिन्हों पर चल रही है.

संविधान के जनक बहुत बड़े राजनेता थे और आज के समय में कोई भी बड़ा नेता उनकी ईमानदारी, उनकी संवैधानिक भावना के प्रति आदर और उनके विद्वत्तापूर्ण कार्यों की बराबरी नहीं कर सकता. आज की तुच्छ राजनीति में भी वे एक अनुकरणीय नेता है।

Web Title: Dr. Babasaheb Ambedkar is timeless

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे