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ब्लॉग: ‘एक देश, एक चुनाव’ को लेकर शीघ्र हो सकता है फैसला!

By राजकुमार सिंह | Updated: March 5, 2024 11:27 IST

छह महीनों में समिति ने राजनीतिक दलों से लेकर जनसाधारण तक से इस जटिल मुद्दे पर विचार मांगे। जनसाधारण के विचारों का तो अभी पता नहीं, लेकिन राजनीतिक दलों की राय अपेक्षित रूप से विभाजित नजर आती है।

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ठळक मुद्देसमिति की रफ्तार से लगता है कि वह अपनी रिपोर्ट लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार को दे देगीसमिति 1 सितंबर, 2023 को गठित समिति 24 फरवरी को अपने कामकाज की समीक्षा कर चुकी हैछह महीनों में समिति ने राजनीतिक दलों से लेकर जनसाधारण तक से इस जटिल मुद्दे पर विचार मांगे

एक देश, एक चुनाव के विषय पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित आठ सदस्यीय उच्चस्तरीय समिति की रफ्तार से लगता है कि वह अपनी रिपोर्ट लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार को दे देगी। समिति को पंचायत और नगर पालिका से लेकर लोकसभा तक सभी चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे पर रिपोर्ट देनी है। 1 सितंबर, 2023 को गठित समिति 24 फरवरी को अपने कामकाज की समीक्षा कर चुकी है।

छह महीनों में समिति ने राजनीतिक दलों से लेकर जनसाधारण तक से इस जटिल मुद्दे पर विचार मांगे। जनसाधारण के विचारों का तो अभी पता नहीं, लेकिन राजनीतिक दलों की राय अपेक्षित रूप से विभाजित नजर आती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक देश, एक चुनाव के पक्षधर हैं इसलिए भाजपा और उसके मित्र दल पक्ष में नजर आते हैं।

एक साथ चुनाव में उन्हें वे सभी लाभ नजर आते हैं, जो इसके पैरोकार गिनाते रहे हैं। मसलन, चुनाव खर्च में भारी कमी आएगी, आचार संहिता के चलते सरकार की निर्णय प्रक्रिया और प्रशासनिक कामकाज प्रभावित होने से जो नुकसान होता है, उससे बचा जा सकेगा।दूसरी ओर भाजपा विरोधी दलों को इसमें संघवाद और राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण तथा राष्ट्रीय मुद्दों से विधानसभा और स्थानीय चुनावों को भी प्रभावित कर क्षेत्रीय दलों को नुकसान की सुनियोजित साजिश दिखती है।

याद दिलाना जरूरी है कि एक देश, एक चुनाव कोई अनूठा विचार नहीं है। 1951 से ले कर 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ ही होते रहे। उसके बाद ही यह प्रक्रिया भंग हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लोकसभा चुनाव निर्धारित समय से एक साल पहले कराने के फैसले ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई।

2014 में अकेले दम बहुमत के साथ केंद्रीय सत्ता में आने और फिर देश के कई राज्यों में भी अकेले दम या गठबंधन सहयोगियों के साथ सुविधाजनक बहुमत की सरकारें चलाते हुए भाजपा को लगता है कि एक साथ चुनाव की प्रक्रिया में वापस लौटा जा सकता है। बेशक दुनिया में कुछ लोकतांत्रिक देशों में राष्ट्रीय और प्रांतीय सत्ता के लिए एक साथ चुनाव होते हैं, पर कुछ में नहीं भी होते हैं।

यह पूरी तरह देश विशेष की राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि उसके लिए क्या सही है। दो राय नहीं कि एक साथ चुनाव से खर्च काफी घट जाएगा, आचार संहिता के चलते प्रशासन पर पड़नेवाले प्रभाव से भी बचा जा सकेगा, लेकिन उसके खतरे भी हैं। विधानसभा चुनाव अक्सर राज्य के और स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं। एक साथ चुनाव कराने पर क्या राष्ट्रीय मुद्दे हावी और स्थानीय मुद्दे गौण नहीं हो जाएंगे? इन सवालों का जवाब खोजा जाना चाहिए।

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