अश्वनी कुमार का ब्लॉग: राजद्रोह कानून पर अदालत का रुख प्रशंसनीय

By अश्वनी कुमार | Published: May 20, 2022 10:10 AM2022-05-20T10:10:29+5:302022-05-20T10:12:21+5:30

राज्य के एक अंग के रूप में सर्वोच्च न्यायालय का विचारोत्तेजक क्षेत्राधिकार स्पष्ट रूप से अपने घोषित कानून के अनुरूप है कि राज्य (जिसका न्यायालय एक अभिन्न अंग है) न केवल व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करने बल्कि इसे प्रदान करने के लिए भी बाध्य है। यह वास्तव में ऐतिहासिक समय है, क्योंकि सरकार देश के कानूनी ढांचे की समीक्षा कर रही है।

Court's stand on sedition law commendable | अश्वनी कुमार का ब्लॉग: राजद्रोह कानून पर अदालत का रुख प्रशंसनीय

अश्वनी कुमार का ब्लॉग: राजद्रोह कानून पर अदालत का रुख प्रशंसनीय

Highlightsनेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर की एक रिपोर्ट ने पुष्टि की है कि अकेले 2019 में 1731 लोगों की हिरासत में मौत हो गई। सरकारों को पता होना चाहिए कि वे तभी बनी रह सकती हैं जब वे स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित हों।

भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं में सर्वोच्च न्यायालय का प्रभावी हस्तक्षेप महत्वपूर्ण है। हाल के दिनों में अंग्रेजों के जमाने के औपनिवेशिक कानून के बड़े पैमाने पर दुरुपयोग ने नागरिकों के स्वतंत्रता के अधिकार और समुचित कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन किया है तथा इस प्रक्रिया में उनकी प्रतिष्ठा व गरिमा के अधिकार का हनन हुआ है। कार्टूनिस्टों, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, छात्रों और राजनेताओं ने अपनी प्रतिबद्धता के लिए लंबे समय तक कारावास और दमनकारी फौजदारी मुकदमों का सामना किया है। 

हाल ही में महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और मध्यप्रदेश में राजनीतिक विरोधियों तथा अन्य लोगों के खिलाफ राजद्रोह के आरोपों ने पुष्टि की है कि राजद्रोह कानून का दुरुपयोग अब कोई असामान्य बात नहीं रह गई है। इसने मौलिक अधिकारों की संवैधानिक गारंटी को खोखला कर दिया है और लोगों को कठोर कानूनों की कठोरता से अवगत कराया है। राष्ट्रीय संवेदनाओं को पहले कभी इतनी ठेस नहीं पहुंचाई गई थी।
इस संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट के 11 मई के आदेश को काफी हद तक न्यायिक कौशल के रूप में देखा गया है। 

अदालत ने सरकार द्वारा संशोधित हलफनामा दाखिल करने पर मौके का फायदा उठाते हुए अपने बहुप्रशंसित अंतरिम निर्देश जारी किए। इससे राजद्रोह कानून के अंतर्गत चल रहे मुकदमों पर प्रभावी रूप से रोक लग गई है और धारा 124 ए के तहत अपराध के लिए हिरासत में लिए गए लोगों को राहत प्रदान करते हुए, संबंधित अदालतों में जमानत के लिए आवेदन करने वालों को जमानत दिए जाने का रास्ता साफ किया गया है। कोर्ट ने साफ शब्दों में यह भी कहा है कि केंद्र और राज्य सरकारें भविष्य में इस मामले में अंतिम निर्णय होने तक इस कानून के तहत गिरफ्तारी नहीं करेंगी।

न्यायिक इतिहास में ऐसा पहली बार देखा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय ने एक फौजदारी कानून के प्रावधान को स्पष्ट रूप से असंवैधानिक घोषित किए बिना वस्तुत: निरर्थक बना दिया है। न्यायिक राज्य कला का उदाहरण पेश करते हुए अदालत ने कठोर कानून के खिलाफ नागरिकों की रक्षा की है। संविधान के उदारवादी विवेक के पक्ष में निर्णायक रूप से झुकते हुए, कोर्ट संवैधानिक सिद्धांत के संरक्षक के रूप में देश की अपेक्षाओं पर खरा उतरा है। न्यायालय ने खुद को सामूहिक विवेक और राष्ट्र की नैतिक कल्पना के साथ जोड़ा। 

इसने दिखाया है कि बात जब व्यक्तियों की स्वतंत्रता और गरिमा की होती है तो सर्वोच्च न्यायालय संवेदनाओं और लोगों की भावनाओं से अछूता नहीं रहता। प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने न्यायाधीश ओलिवर वेंडेल होम्स की उस उक्ति को सही साबित किया है कि ‘न्यायाधीश भारी हुए बिना वजनदार हो सकते हैं।’

उम्मीद की जानी चाहिए कि शीर्ष न्यायालय अपने निर्णयों का उद्देश्यपूर्ण प्रवर्तन सुनिश्चित करेगा जिससे कि मानवाधिकार की रक्षा हो, जिसे बार-बार उसने अपने निर्णयों में मान्यता दी है। अमेरिका के न्यायाधीश वारेन बर्जर ने कहा था, ‘विचार, आदर्श और महान अवधारणाएं न्याय की व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इसका निष्पादन हो। न्याय की अवधारणाओं के हाथ और पैर होने चाहिए नहीं तो वे बांझ या अमूर्त रह जाते हैं।’

हिरासत में यातना का संकट बेरोकटोक जारी है। नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर की एक रिपोर्ट ने पुष्टि की है कि अकेले 2019 में 1731 लोगों की हिरासत में मौत हो गई। न्यायालय से उचित रूप से हस्तक्षेप करने और यूएपीए और उन अन्य फौजदारी कानूनों पर पुनर्विचार करने की अपेक्षा की जाती है, जिनका बार-बार दुरुपयोग करते हुए नागरिक स्वतंत्रता और लोगों के अधिकारों को कुचला गया है। उनके दुरुपयोग के उदाहरण राष्ट्र की अंतरात्मा में अमिट रूप से अंकित हैं। 

राज्य के एक अंग के रूप में सर्वोच्च न्यायालय का विचारोत्तेजक क्षेत्राधिकार स्पष्ट रूप से अपने घोषित कानून के अनुरूप है कि राज्य (जिसका न्यायालय एक अभिन्न अंग है) न केवल व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करने बल्कि इसे प्रदान करने के लिए भी बाध्य है। यह वास्तव में ऐतिहासिक समय है, क्योंकि सरकार देश के कानूनी ढांचे की समीक्षा कर रही है। ऊपर सुझाई गई पहल मानव अधिकारों के संरक्षण में निहित लोकतंत्र की सहायता के लिए है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ हमारे जुड़ाव में भारत की सॉफ्ट पावर को बढ़ाएगी। न्यायालय से प्रेरित पहल एक नई विश्व व्यवस्था को आकार देने में राष्ट्र की प्रमुख भूमिका को भी मान्य करेगी।

सरकारों को पता होना चाहिए कि वे तभी बनी रह सकती हैं जब वे स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित हों। वर्तमान में, प्रधानमंत्री ने एक स्वतंत्र देश के लिए अभिशाप बन चुके कानून पर फिर से विचार करने का निर्णय लेकर अच्छा किया है। उम्मीद है, राष्ट्र उपनिवेशवाद के अंतिम अवशेषों से छुटकारा पाएगा जो समाज की इच्छा है। ये हमारे राष्ट्रीय घोषणापत्र के वादे को धता बताते हैं और हमारे लोगों पर किए गए अन्याय की एक दर्दनाक याद दिलाते हैं। 

परिदृश्य की रूपरेखा में बदलाव के साथ, ‘पुराने मानचित्रों को एक तरफ रख देना चाहिए और जमीन को नए सिरे से तैयार किया जाना चाहिए।’ जहां तक संशयवादियों का सवाल है, विक्टर ह्यूगो का यह कथन हमारे लिए आश्वस्तिकारक होना चाहिए कि ‘पृथ्वी पर कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया है।’

Web Title: Court's stand on sedition law commendable

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे