गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉगः पलायन की सामने आती त्रसद चुनौती
By गिरीश्वर मिश्र | Published: March 30, 2020 06:23 AM2020-03-30T06:23:35+5:302020-03-30T06:23:35+5:30
Coronavirus:आज के विकास की नीति तो ठीक विपरीत है. शहर आबाद होते जा रहे हैं और गांव समाप्त हो रहे हैं. क्या विकास की कोई समेकित बात संभव है? गांवों को ध्यान में रख कर देश के विकास की बात हो सकेगी? महात्मा गांधी ने स्वावलंबी और समर्थ गांवों का सपना देखा था. जिस तरह की त्नासदियों से हम गुजर रहे हैं वह सबके साथ विकास की चुनौती को रेखांकित कर रही है.
यह समय भारत के लिए ही नहीं बल्किपूरी दुनिया के लिए खौफ और चुनौती भरा है. वैसे तो इस अदृश्य बीमारी की गिरफ्त में कोई भी आ सकता है पर भारत में इसका एक खास सामाजिक-आर्थिक आयाम भी अब सामने आ रहा है. यह आयाम गांव से शहर में आए लोगों से जुड़ा है. मजदूरी करने की नीयत से युवा और प्रौढ़ जनों का एक बड़ा वर्ग शहरों की तरफ भागता है. शहर में ये लोग अनौपचारिक क्षेत्न के तमाम निजी व्यवसायों और कार्यो में शामिल होकर दिहाड़ी पर काम करते हुए अपनी आजीविका चलाते हैं.
आम बंदी के ताजे दौर में सारे काम बंद हो गए और दिहाड़ी पर कमाई करने वाले मेहनतकशों का आसरा ही खत्म हो गया. उनकी जमा पूंजी इतनी नहीं कि तीन सप्ताह की घोषित बंदी के दौरान वे अपने रहने-खाने का बंदोबस्त कर सकें. ऊपर से इस अवधि के बाद आगे क्या होगा इसके बारे में भी कुछ पता नहीं है. अनिश्चय की ऐसी स्थिति में प्राण हानि के भय से हजारों की तादाद में ये गरीब अपने-अपने गांवों की ओर रु ख किए हुए हैं. लाचार व बेबस लोगों का बहुत बड़ा हुजूम अपने गांवों की ओर चल पड़ा है. अब तय हुआ है कि इन लोगों को जो भी जहां है वहीं रोका जाए और भोजन-पानी और रहने की व्यवस्था की जाए. आशा है इनकी हर संभव सहायता की कोशिश की जाएगी. यह आवश्यक होगा कि इस समूह के स्वास्थ्य की सतत गहन निगरानी की व्यवस्था हो.
इसके बावजूद कि इस समय की प्राथमिकता स्वास्थ्य की है और उसके लिए हर कदम उठाए जाने चाहिए, यह सवाल भी कम महत्व का नहीं है कि जिस लालसा में निम्न आर्थिक वर्ग के लोग गांव छोड़ कर शहर की ओर आए, उसकी हकीकत और उसके नीतिगत आशय क्या हैं. यदि गांव में ही जीवन की अंतिम आस बची है तो गांव को समर्थ क्यों न बनाया जाए ताकि लोग किसी मजबूरी में गांव न जाएं बल्कि सार्थक और उत्पादक कार्य करते हुए जीने के लिए गांव में रहें.
आज के विकास की नीति तो ठीक विपरीत है. शहर आबाद होते जा रहे हैं और गांव समाप्त हो रहे हैं. क्या विकास की कोई समेकित बात संभव है? गांवों को ध्यान में रख कर देश के विकास की बात हो सकेगी? महात्मा गांधी ने स्वावलंबी और समर्थ गांवों का सपना देखा था. जिस तरह की त्नासदियों से हम गुजर रहे हैं वह सबके साथ विकास की चुनौती को रेखांकित कर रही है.