Cloudburst in Chamoli: उत्तरकाशी के धराली में 5 अगस्त को बादल फटने से हुई भीषण तबाही के मंजर को लोग अभी तक भूले भी नहीं थे कि 22 अगस्त को आधी रात के बाद उत्तराखंड के चमोली जिले के थराली गांव में भी बादल फटने से तबाही का मंजर देखा गया. पहले धराली और अब थराली, इन दोनों घटनाओं ने पहाड़ों की नाजुक स्थिति को स्पष्ट रूप से उभारा है. एकाएक बादल फटने से हो रही तबाही का ये मंजर केवल उत्तराखंड के इन दो इलाकों तक ही सीमित नहीं है बल्कि मानसून की शुरुआत से ही इस वर्ष उत्तर भारत के पर्वतीय और अर्धपर्वतीय क्षेत्रों में बादल फटने की घटनाओं से व्यापक तबाही हो रही है. उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्यों में लगातार ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं.
‘बादल फटना’ एक अत्यधिक स्थानीयकृत मौसमी घटना है, जिसमें अल्प अवधि (20-30 मिनट) के भीतर किसी बहुत छोटे भौगोलिक क्षेत्र (प्रायः 1-2 वर्ग किमी) में असामान्य रूप से भारी वर्षा हो जाती है. भारतीय मौसम विभाग के अनुसार यदि किसी क्षेत्र में एक घंटे में 100 मिलीमीटर से अधिक वर्षा होती है तो उसे ‘बादल फटना’ कहा जा सकता है.
यह घटना प्रायः ऊंचे पर्वतीय इलाकों में होती है, जहां नम हवा के घने बादल पर्वतों से टकराकर ऊपर उठते हैं और एक बिंदु पर अत्यधिक संघनन के कारण अचानक फट पड़ते हैं. बादल फटना पूरी तरह प्राकृतिक घटना है, जिसे रोक पाना संभव नहीं है लेकिन इसके प्रभाव को कम अवश्य किया जा सकता है.
अत्याधुनिक रडार और उपग्रह आधारित तकनीक से स्थानीय स्तर पर वर्षा की निगरानी, समय रहते अलर्ट जारी करने से जनहानि को रोका जा सकता है. पर्वतीय क्षेत्रों में नियोजन, अनियंत्रित निर्माण कार्यों पर रोक, पहाड़ी ढलानों पर संवेदनशील निर्माण न करने की नीति, सुरक्षित और टिकाऊ आवासीय संरचनाओं को बढ़ावा इत्यादि कदमों से ऐसी आपदाओं से कुछ हद तक बचा जा सकता है.
जंगल वर्षा को सोखते हैं और मिट्टी को बांधकर रखते हैं, वनों की रक्षा से भूस्खलन का खतरा कम होता है, इसलिए वनों का संरक्षण बेहद जरूरी है. आपदा प्रबंधन के अन्य उपायों में स्थानीय समुदायों को प्रशिक्षण देना, राहत और बचाव दलों की त्वरित उपलब्धता, आपातकालीन योजनाएं और आश्रय स्थल विकसित करना इत्यादि शामिल हैं.
इसके अलावा हॉट-स्पॉट क्षेत्रों का मानचित्रण ताकि वहां निगरानी और तैयारी बढ़ाई जा सके तथा क्षेत्र विशेष की भौगोलिक और जलवायु विशेषताओं का गहन अध्ययन भी जरूरी है. आपदा प्रबंधन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, पूर्व चेतावनी और सतत पर्यावरणीय रणनीति ही भविष्य में जान-माल की हानि घटा सकती है.