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अगर 'चौरी चौरा कांड' ना हुआ होता तो क्या 1947 से पहले ही मिल जाती आजादी?

By आदित्य द्विवेदी | Updated: February 4, 2018 09:49 IST

चौरी चौरा कांड के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। जानें इतिहास के पन्नों में दर्ज चौरी-चौरा कांड की पूरी कहानी...

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1 अगस्त 1920 को महात्मा गांधी ने देश भर में असहयोग आंदोलन शुरू किया था। इसका उद्देश्य सरकार के साथ सहयोग न करके कार्यवाही में बाधा उपस्थित करना था। पूरे देश में असहयोग आंदोलन को भारी समर्थन मिल रहा था। इस आंदोलन के लिए गोरखपुर के पास चौरी-चौरा में भगवान अहीर की अगुवाई में वालंटियर्स का एक जत्था निकल रहा था। तारीख थी 1 फरवरी 1922। ये लोग बाजार में शराब और विदेशी कपड़ों की बिक्री के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे। यह बाजार इलाके के जमींदार का था। जमींदार ने पास के थाने से प्रदर्शनकारियों की रोकने की दरख्वास्त की। 

इसके बाद थानेदार गुप्तेश्वर सिंह अपने कारिंदों के साथ पहुंचे और भगवान अहीर की लाठियों से पिटाई की। प्रदर्शन समाप्त हो गया लेकिन लोगों की दिलों में आग बढ़ गई। लोगों के अंदर सुलग रही चिंगारी ने 4 फरवरी को ज्वालामुखी का रूप ले लिया। भगवान अहीर समेत सैकड़ों लोग चौरी चौरा थाने पहुंच गए और आग लगा दी। पुलिस वालों को भागने तक का मौका नहीं मिला। इस आग में गुप्तेश्वर सिंह समेत 23 पुलिस वाले जलकर खाक हो गए।

चौरी चौरी घटना के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। गांधी जी का पूरा आंदोलन अहिंसक था। चौरी चौरा की हिंसक घटना ने उन्हें झकझोर दिया। चौरी चौरा कांड ने भारत की स्वाधीनता के सिपाहियों के दो धड़े बना दिए- गरम दल और नरम दल। ये चर्चा आज भी जारी है कि अगर महात्मा गांधी असहयोग आंदोलन वापस नहीं लेते तो भारत को पहले ही आजादी मिल गई होती।

अंग्रेजों ने चौरी चौरा कांड के लिए जिम्मेदार लोगों को गिरफ्तार किया और मुकदमा शुरु हुआ। 9 जुलाई 1922 को सेशन कोर्ट ने 172 आंदोलनकारियों को फांसी की सजा सुनाई। महामना मदन मोहन मालवीय ने लोवर कोर्ट के इस फैसले को हाई कोर्ट में अपील की। 6 मार्च 1923 को हाई कोर्ट में याचिका दायर हुई। हाई कोर्ट ने थोड़ा नरम रुख अख्तियार करते हुए 156 लोगों को बख्श दिया। चौरी चौरा में 23 पुलिस वालों की हत्या के लिए 19 लोगों को फांसी दी गई।

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