एन. के. सिंह का ब्लॉग: जातिवादी दलों के उभार के खतरे
By एनके सिंह | Published: March 31, 2019 06:31 AM2019-03-31T06:31:18+5:302019-03-31T06:31:18+5:30
सैद्धांतिक मान्यता है कि देश की राजनीतिक पार्टियों की जिम्मेदारी होती है कि मतदाताओं की सही समझ और तार्किक सोच विकसित करें. लेकिन पिछले 70 साल में हुआ ठीक उलटा.
सैद्धांतिक मान्यता है कि देश की राजनीतिक पार्टियों की जिम्मेदारी होती है कि मतदाताओं की सही समझ और तार्किक सोच विकसित करें. लेकिन पिछले 70 साल में हुआ ठीक उलटा.
जाति, उप-जाति, धर्म, क्षेत्न, भाषा और अन्य संकुचित आधार पर इन दलों ने वोट की अपील करनी शुरू की. फिर इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए नए धुर-जातिवादी दल पैदा हुए और वह भी हजारों की संख्या में.
जहां यह सब बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों की असफलता के कारण हुआ वहीं गठबंधन इन बड़े दलों के लिए मजबूरी होती गई. यानी ब्लैकमेल होने के लिए अपने को समर्पित करना पड़ा.
क्या वजह है कि पिछले 22 सालों में हुए आधा दर्जन आम चुनावों में राष्ट्रीय दलों का मत प्रतिशत आधे से भी कम रहा और बाकी आधे से ज्यादा संकीर्ण सोच को प्रश्रय देने वाले दलों को?
राष्ट्रवाद का वह कौन सा चरण है जिसमें भाजपा को भी जातिवादी पार्टियों से समझौता करना पड़ता है? क्या दलित उत्थान की अपनी नीति पर भरोसा नहीं? यह बैसाखी क्यों? क्यों तमाम आदर्शवाद और राष्ट्रवाद के बाद भी कर्नाटक में गैर-कानूनी व्यवसाय में बदनाम रेड्डी बंधु की मदद अपरिहार्य हो जाती है?
क्यों कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 70 साल बाद भी धुर जातिवादी दलों के साथ मिले बिना अस्तित्व का संकट ङोलती है?
लेकिन गहराई से सोचने पर पता चलता है कि गलती इन अपराधियों, धनलोलुपों या गैरकानूनी धंधे में लिप्त बदनाम लोगों की नहीं है. ये चुनाव जीत कर आए हैं और जनता ने इन्हें वोट दिया है. अपराध और अनैतिकता अगर जनता के ‘जीरो टॉलरेंस’ का कारण नहीं बन सके तो गलती किसकी है?
हम यह कह कर नहीं बच सकते कि राजनीति में अच्छे विकल्प नहीं हैं. अच्छे लोग इसलिए नहीं आते कि आपने उन्हें आने नहीं दिया अपनी बिरादरी के प्रति लगाव के कारण और अपराधी में ‘गरीबनवाज’ (रोबिनहुड) देख कर.
‘फलां अपराधी भले ही अपराधी हो लेकिन अपनी बिरादरी (या धर्म) वालों को कभी तंग नहीं करता और गरीब की शादी में मदद करता है यानी अमीर को लूटता है’ का भाव राजनीति में अच्छे, नैतिक लोगों को प्रवेश से रोकता है.
इन जातिवादी या अन्य संकीर्ण सोच पर आधारित दलों का इस चुनाव में कितना वर्चस्व रहेगा इसके लिए कुछ आंक ड़े देखें. नौ राज्यों में 332 सीटों पर कम से कम त्रिकोणीय अन्यथा बहु-कोणीय मुकाबला है जबकि केवल आठ राज्यों की 144 सीटों पर दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का सीधा मुकाबला है.
दोष राजनीति का नहीं लोगों की सोच का है, और उन राष्ट्रीय दलों का है जो आदर्शवाद का दावा तो करते हैं लेकिन जनता को अतार्किक, अवैज्ञानिक और संकीर्ण पहचान समूह से सात दशक में निकालना तो दूर उन्हें उस गर्त की कभी न उबरने वाली गहराई में डाल रहे हैं—चुनाव-दर-चुनाव इनके साथ समझौता करके.