Bureaucrats and Public Servants: इन दिनों यह प्रवृत्ति आम हो चली है कि तमाम सेवाओं में कार्यकाल पूरा करने के बाद नौकरशाह और लोकसेवक फिर से अनुबंध अथवा पुनर्नियुक्ति के आधार पर रोजगार में जुट जाते हैं. वे पेंशन पाते हैं और अलग से कुछ धन भी सेवा के बदले में लेते हैं. वैसे तो इस पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए. कोई मरते दम तक भी काम करता रहे, यह सक्रियता तो सेहत के लिए भी लाभकारी है. लेकिन उसकी दोबारा सेवाओं की कीमत देश को चुकानी पड़ती है. दूसरी ओर यह सकारात्मक पहलू है कि स्वास्थ्य के पैमाने पर यह देश की बेहतर हालत बयान करता है.
एक जमाने में साठ की उमर तक पहुंचते-पहुंचते औसत भारतीय शारीरिक तौर पर कमजोर हो जाता था, कमर झुक जाती थी, आंखों पर चश्मा और हाथ में छड़ी बदन के कपड़ों की तरह अनिवार्य हो जाती थी. लेकिन हालिया दशकों में फिटनेस को लेकर आम आदमी जागरूक हुआ है. अब तो साठ साल के बाद भी आठ घंटे काम करने के बाद थकान महसूस नहीं होती.
धारणा बन गई है कि जब हाथ-पैर चल रहे हैं तो घर क्यों बैठना? मैं भी घर बैठने को उचित नहीं मानता, पर उसका विकल्प नौकरी ही है - यह उचित नहीं ठहराया जा सकता. बीते दिनों अनेक प्रदेशों से आला अधिकारियों के दोबारा सरकारी पदों को हथिया लेने की खबरें समाचारपत्रों में प्रकाशित हुई हैं. देखा गया है कि प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारी पहले से ही पुनर्नियुक्ति पर काम कर रहे थे.
जब उनकी अवधि समाप्त हुई तो वे नई नौकरी की खोज में जुट गए. पुलिस, उद्योग, वन और न्यायिक सेवाओं के कुछ उदाहरण हैं कि वे पुनर्नियुक्ति पर रहते हुए आधा समय नई नौकरी की खोज में खर्च करते हैं. उन्हें यदि सरकारी नौकरी में संभावना नहीं दिखती तो वे निजी क्षेत्र अथवा सार्वजनिक उपक्रमों में अपने लिए आकर्षक वेतन और सुविधाओं की नौकरी पर चले जाते हैं.
विडंबना यह है कि वे दायित्वों को निभाते हुए उन उपक्रमों या कंपनियों को उपकृत करते हुए अगली नौकरी के बीज बो देते हैं. यह बेईमानी और अनैतिक है. मगर इससे उनके स्वास्थ्य पर कोई असर नहीं पड़ता. ऐसे अधिकारी सरकारी सेवा में रहते हुए अगली नौकरी के लिए आवेदन कर देते हैं और भारत सरकार या राज्य सरकार से अनुमति तक नहीं लेते.
आचरण संहिता और नियमों के अनुसार यह अनुशासनहीनता और नियमों के उल्लंघन की श्रेणी में आता है. बात यहीं खत्म नहीं होती. कॉर्पोरेट जगत में नौकरी पाए अधिकारियों को अनेक गोपनीय प्रक्रियाओं और परंपराओं की जानकारी होती है. वे अपने नए संस्थान के पक्ष में इन जानकारियों का दुरुपयोग करते हैं. आज तक उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई.
देखा गया है कि ऐसे मामले पद की गरिमा और निष्पक्षता को भी प्रभावित करते हैं. मुख्य सचिव तथा अन्य वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर लगातार सेवा वृद्धि इसका उदाहरण है. प्रत्येक राज्य में मुख्य सचिव का पद अफसरशाही का सर्वोच्च पद है. वह एक तरह से मुख्यमंत्री के समानांतर ही माना जाता है. अगर कोई सरकार लगातार इस जिम्मेदारी भरे पद पर किसी अधिकारी को पुनर्नियुक्ति देती है और उसके पद पर बने रहने के दौरान विधानसभा चुनाव आ जाएं तो मुख्य सचिव कैसे निष्पक्षतापूर्वक काम करेगा?
वह तो उस सरकार के पक्ष में काम करेगा जिसने उसे सेवानिवृत्ति के बाद भी शिखर पद पर बैठा रखा है और सभी जिलों के कलेक्टर उन दिनों जिला निर्वाचन अधिकारी भी होते हैं. वे अधिकारी मुख्य सचिव का निर्देश मानने के लिए बाध्य हैं. इसी वजह से निर्वाचन कानून में सेवावृद्धि प्राप्त अधिकारियों को चुनाव प्रक्रिया से दूर रखने का प्रावधान है. पर, इन नियमों का भी मखौल उड़ाया जाता है.
मान लीजिए चुनाव नहीं भी हों तो मुख्य सचिव अपने अधीनस्थ जिला कलेक्टरों और अन्य अफसरों की गोपनीय चरित्रावली भी लिखता है, जो सेवावृद्धि पर चल रहे किसी वरिष्ठ अधिकारी के लिए कतई जायज नहीं है. तीन साल पहले केंद्रीय सतर्कता आयोग ने अपने आदेश में कहा था कि अधिकारियों-कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति के बाद शांत बैठने की अनिवार्य अवधि पूरी किए बिना निजी क्षेत्र के संगठनों में नौकरी गंभीर कदाचार है. आयोग ने कहा था कि कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी देने से पहले सभी सरकारी संगठनों को अनिवार्य रूप से सीवीसी की मंजूरी लेनी चाहिए.
सतर्कता आयोग ने केंद्रीय विभागों के सचिवों और सार्वजनिक बैंक प्रमुखों को जारी आदेश में कहा था कि सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद अधिकारी निजी क्षेत्र के संगठनों में पूर्णकालिक नौकरी या संविदा पर काम करने लगते हैं. वे नियमों के तहत शांत बैठने की निर्धारित अवधि समाप्त होने का इंतजार भी नहीं करते. यह गंभीर है. इसे तोड़ने के लिए संबंधित अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए.
लेकिन कार्यपालिका ने आयोग के आदेश का आज तक पालन नहीं किया. वैसे इस बात को आदर्शवादी और कोरी भावुकता भरा कथन माना जा सकता है कि कार्यकाल पूरा होने के बाद सेवानिवृत्त अफसरों को एक रोजगार पद क्यों रोक कर रखना चाहिए? जिन अधिकारियों में असाधारण प्रतिभा होती है, उन्हें तो खुद केंद्र सरकार ही आमंत्रित करती है.
लेकिन रिटायरमेंट के बाद वेतन, गाड़ी, नौकर-चाकर तथा अन्य सुविधाओं का लाभ लेने का उन्हें नैतिक हक नहीं है. जब इंसान जवान होता है तब उस पर घर चलाने का आर्थिक दबाव होता है. मगर बुढ़ापे में पेंशन, प्रोविडेंट फंड, ग्रेच्युटी इत्याद लाभ लेने के बाद क्या आर्थिक जरूरतें वैसी रह जाती हैं? बच्चे भी कमाने लगते हैं.
यानी कुल मिलाकर वे लक्जरी जिंदगी जी रहे होते हैं. फिर गरीब बेरोजगारों का अधिकार क्यों छीना जाना चाहिए? वे वृद्धाश्रमों में सेवा क्यों नहीं कर सकते? अनाथालयों में जाकर बच्चों को क्यों नहीं पढ़ा सकते? झुग्गी बस्तियों में सेवा कार्य क्यों नहीं कर सकते? या फिर परोपकारी कार्यों में क्यों संलग्न नहीं हो सकते? और कुछ भी नहीं सूझे तो देशाटन क्यों नहीं कर सकते? मेरी दृष्टि में तो दूसरी पारी में नौकरी उचित नहीं है.