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ब्लॉग: ‘आया राम गया राम’ का दौर कब खत्म होगा ?

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: January 31, 2024 14:03 IST

70 के दशक में सत्ता के गलियारे में मशहूर रहे 'आया राम गया राम' का किस्सा अब मौजूदा सियासत में 'पलटू राम' के रूप में लोगों की जुबान पर है।

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ठळक मुद्दे70 के दशक में सत्ता के गलियारों में 'आया राम गया राम' नाम से बहुत मशहूर किस्सा हुआ थावहीं अब मौजूदा सियासत में वो किस्सा 'पलटू राम' के रूप में लोगों की जुबान पर हैनीतीश कुमार ऐसे ही नेता बनकर उभरें हैं, जो कब किधर पलटी मार जाएं, कुछ कहा नहीं जा सकता

आधी सदी से कुछ ज्यादा ही पुरानी बात है। हरियाणा के पलवल चुनाव-क्षेत्र से 1967 में गया लाल नामक उम्मीदवार ने चुनाव जीता था। स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतने के तत्काल बाद उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। फिर एक दिन के भीतर-भीतर उन्होंने तीन बार पाला बदला– कांग्रेस से जनता पार्टी में, फिर वापस कांग्रेस में और फिर जनता पार्टी में। इसी ‘खेल’ में जब उन्हें एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके पत्रकारों के समक्ष पेश किया गया तो संबंधित नेता ने कहा था ‘गया राम अब आया राम हो गए हैं’। तभी से दल-बदलुओं के लिए एक मुहावरा बन गया।

आज जिस संदर्भ में यह चर्चित किस्सा याद आ रहा है, उसका संबंध ‘दल-बदल’ से तो नहीं, पर ‘सरकार-बदल’ से जरूर है और इस प्रक्रिया में गया राम को पलटू राम की संज्ञा दी गई है। बिहार की महागठबंधन की सरकार के मुखिया नीतीश कुमार ने फिर पलटी मार कर भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार बना ली है।

डेढ़ साल पहले ही वे अपने दल जदयू के साथी दल भाजपा का दामन छोड़कर लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ मिले थे, मिलकर सरकार बनाई थी। तब उन्होंने कसम खाई थी कि मर जाऊंगा पर भाजपा के साथ फिर नहीं जाऊंगा। उस कसम का क्या हुआ, वही जानें, पर नीतीश कुमार आज फिर यह कह कर भाजपा के साथ हो गए हैं कि ‘अब इधर-उधर नहीं जाना है।’ इधर-उधर से उनका क्या मतलब है, यह बात समझना भी आसान नहीं है।

उनका इतिहास बताता है कि वे कब पलटी खा जाएं, पता नहीं। हां, अब इतना सबको पता है कि ‘गया राम’ की तरह ही ‘पलटू राम’ भी भारतीय राजनीति का हिस्सा बन गया है। भारत का जागरूक नागरिक इन पलटू रामों से पूछ रहा है- ‘यह बता कि काफिला क्यों लुटा?’ और यदि नहीं पूछ रहा है तो उसे पूछना चाहिए यह सवाल।

विडम्बना यह भी है कि हमारे नेता, चाहे वे किसी भी रंग के क्यों न हों, इधर-उधर की बात करके मतदाता को भरमाने में महारत हासिल कर चुके हैं। झूठे वादे और दावे उनके लिए किसी भी प्रकार की शर्म का कारण नहीं बनते। मतदाता को भले ही कभी इस बात पर शर्म आ जाए कि उसने दल-बदलू या पलटू राम का समर्थन क्यों किया था, पर हमारा नेता इस बात की कोई आवश्यकता नहीं समझता कि वह अपने मतदाता को बताए कि उसने जो कुछ किया है, वह क्यों किया है। विडम्बना यह भी है कि हमारी राजनीति में राजनीतिक शुचिता के लिए शायद ही कहीं कोई स्थान बचा है।

जनतंत्र एक ऐसी शासन-व्यवस्था है जिसमें शासन से यह अपेक्षा की जाती है कि वह घोषित नीतियों और दावों-वादों के अनुरूप कार्य करेगा। हां, चुनावों से पहले ऐसा करने की घोषणाएं जरूर की जाती हैं, पर फिर बड़ी आसानी से उन्हें भुला दिया जाता है। मान लिया जाता है कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है।

जनतंत्र का तकाजा है कि जनता अपनी याददाश्त मजबूत बनाए रखे। तभी जनतंत्र सफल हो सकता है और सार्थक भी। ‘जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा’ जो सरकार बनती है, उसकी सफलता-सार्थकता का आधार यही है कि जनता अनवरत सजग रहे- न केवल अपने नेताओं की कथनी-करनी को लेकर, बल्कि अपने अधिकारों-दायित्वों के प्रति भी। इसीलिए यह सवाल उठता है कि क्या हमें किसी ‘गया राम’ या ‘पलटू राम’ से उसके किये-करे की कैफियत नहीं पूछनी चाहिए?

जनतंत्र में राजनीति के खिलाड़ी अपनी घोषित-नीतियों, वादों और दावों के आधार पर चुनाव जीतते-हारते हैं। भले ही हमेशा ऐसा हो नहीं, पर ऐसा माना जाता है कि चुनाव नीतियों के आधार पर ही होते हैं. माना यह भी जाता है कि चुनाव जीतने वाला इन नीतियों के अनुसार अपना आचरण रखेगा। अपनी घोषित नीतियों पर टिका रहेगा पर ऐसा अक्सर होता नहीं।

अक्सर राजनेता अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जनतंत्र की मूल भावना के साथ गद्दारी करते दिखाई देते हैं। दल-बदलुओं का आचरण इसी का उदाहरण है। राजनीतिक स्वार्थ के लिए कुछ भी करने को राजनीति की विवशता कहना-मानना वस्तुत: जनता के साथ विश्वासघात ही है। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ हमारे देश में ही होता है लेकिन यह कह कर कि दुनिया के अन्य कई जनतांत्रिक देशों में भी यह ‘बीमारी’ है, हम अपनी बीमारी की गंभीरता को कम नहीं आंक सकते। इसीलिए हमने लगभग चालीस साल पहले दल-बदल कानून की आवश्यकता को समझा था और 52वें संशोधन के तहत यह कानून बनाया गया था। 

उसके बाद फिर सन् 2003 में 91वें संशोधन के तहत इस कानून को कुछ और ताकतवर बनाया गया। पर बीमारी का मुकम्मल इलाज नहीं हो पाया। इलाज तो करना होगा लेकिन कैसे? इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है लेकिन जनतंत्र की सफलता का तकाजा है कि इलाज की कोशिशें जारी रहें। हकीकत तो यह है कि अब हमारी राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान बचा ही नहीं है।

सत्ता ही हमारी राजनीति के केंद्र में है। गांधीजी ने सेवा के लिए राजनीति की बात कही । अब न उस बात को सुना जा रहा है, न याद रखने की कोई आवश्यकता महसूस की जा रही है। अच्छी बात है कि दल-बदल कानून पर पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस की गई है। देखना होगा कि पुनर्विचार कब और कैसे होता है लेकिन ऐसे किसी कानून से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जनतंत्र के नागरिक के मन में इस बात का जगना कि ‘आया राम गया राम’ का उदाहरण किसी व्यक्ति ने प्रस्तुत किया हो या राजनीतिक दल ने, यह पूरी जनतांत्रिक व्यवस्था के साथ बेईमानी है।

यह सच है कि ऐसा करते हुए ‘शर्म उनको मगर नहीं आती’, पर जागरूक नागरिक का दायित्व बनता है कि वह शर्म महसूस न करने वालों को शर्म दिलाने की कोशिश लगातार करता रहे। कहीं कोई ऐसी व्यवस्था भी होनी चाहिए जिसमें हमारे निर्वाचित नेता संविधान की शपथ लेने के साथ-साथ मतदाता के प्रति निष्ठा की भी शपथ लें।

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