ब्लॉग: इक्कीसवीं सदी में भी प्रासंगिक हैं संत कबीर के दोहे

By योगेश कुमार गोयल | Updated: June 22, 2024 10:16 IST2024-06-22T10:15:01+5:302024-06-22T10:16:38+5:30

सदैव कड़वी और खरी बातें करने वाले स्वच्छंद विचारक संत कबीर दास को कई बार धमकियां भी मिलीं लेकिन वे धमकियों से कभी भी विचलित नहीं हुए और समाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधश्रद्धा, अंधविश्वास, आडम्बरों तथा सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना करते हुए उन्होंने समाज में प्रेम, सद्भावना, एकता और भाईचारे की अलख जगाई.

Blog Saint Kabir's couplets are relevant even in the twenty-first century | ब्लॉग: इक्कीसवीं सदी में भी प्रासंगिक हैं संत कबीर के दोहे

मध्यकालीन युग के महान कवि संत कबीर

Highlightsप्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष पूर्णिमा के दिन मध्यकालीन युग के महान कवि संत कबीर दास की जयंती मनाई जाती हैइस वर्ष 22 जून को मनाई जा रही हैमत-मतांतर के बावजूद सभी विद्वान् कबीर का जन्म काशी में हुआ मानते हैं

प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष पूर्णिमा के दिन मध्यकालीन युग के महान कवि संत कबीर दास की जयंती मनाई जाती है, जो इस वर्ष 22 जून को मनाई जा रही है. माना जाता है कि इसी पूर्णिमा को विक्रमी संवत् 1455 सन् 1398 में उनका जन्म काशी के लहरतारा ताल में हुआ था. उनके जन्म को लेकर अलग-अलग मत हैं. हालांकि तमाम मत-मतांतर के बावजूद सभी विद्वान् कबीर का जन्म काशी में हुआ मानते हैं.

वह ऐसा दौर था, जब चारों तरफ जात-पांत, छुआछूत, धार्मिक पाखंड, अंधश्रद्धा से भरे कर्मकांड और साम्प्रदायिक उन्माद का बोलबाला था. सदैव कड़वी और खरी बातें करने वाले स्वच्छंद विचारक संत कबीर दास को कई बार धमकियां भी मिलीं लेकिन वे धमकियों से कभी भी विचलित नहीं हुए और समाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधश्रद्धा, अंधविश्वास, आडम्बरों तथा सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना करते हुए उन्होंने समाज में प्रेम, सद्भावना, एकता और भाईचारे की अलख जगाई.

उन्होंने अपना सारा जीवन देशाटन करने और साधु-संतों की संगति में व्यतीत कर दिया और अपने उन्हीं अनुभवों को उन्होंने मौखिक रूप से कविताओं अथवा दोहों के रूप में लोगों को सुनाया. लोगों को बड़ी आसानी से अपनी बात समझाने के लिए उन्होंने उपदेशात्मक शैली में लोक प्रचलित और सरल भाषा का प्रयोग किया. उनकी भाषा में ब्रज, अवधी, पंजाबी, राजस्थानी तथा अरबी फारसी के शब्दों का मेल था. अपनी कृति सबद, साखी, रमैनी में उन्होंने काफी सरल और लोक भाषा का प्रयोग किया है. गुरु के महत्व को सर्वोपरि बताते हुए समाज को उन्होंने ज्ञान का मार्ग दिखाया. 

गुरु की महिमा का उल्लेख करते हुए वह कहते हैं:

गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय।

एक ही ईश्वर को मानने वाले कबीर दास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे. कबीरपंथी संत कबीर को एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं. धार्मिक एकता के प्रतीक और अंधविश्वास तथा धर्म व पूजा के नाम पर आडम्बरों के घोर विरोधी रहे संत कबीर ने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज सुधार के कार्यों में लगा दिया था. अपने उपदेशों में उनका कहना था कि वृक्ष कभी अपने फल स्वयं नहीं खाते, न ही नदियां कभी अपने लिए जल का संचय करती हैं, इसी प्रकार सज्जन व्यक्ति अपने शरीर को अपने लिए नहीं बल्कि परमार्थ में लगाते हैं. अपनी रचनाओं में उन्होंने सदैव हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया और जीवन पर्यंत पूर्ण रूप से धर्मनिरपेक्ष मूल्यों तथा मानव सेवा के प्रति समर्पित रहे. कबीर दास के विचार आज इक्कीसवीं सदी में भी बेहद प्रासंगिक हैं.
 

Web Title: Blog Saint Kabir's couplets are relevant even in the twenty-first century

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