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ब्लॉगः क्षेत्रीय दलों का क्यों नहीं हो रहा विस्तार, बड़ी पार्टियों के पिछलग्गू बनने पर क्यों हैं मजबूर?

By राजेश बादल | Published: March 10, 2023 4:12 PM

इस समय तक वैचारिक आधार कमजोर पड़ने लगा था और सियासत उद्योग की शक्ल लेने लगी थी। इसलिए पूंजी के दखल से खुद को न राष्ट्रीय पार्टियां मुक्त रख पाईं और न ही क्षेत्रीय दल अपने को बचा पाए।

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देश में कुछ समय से छोटी और मंझोली राजनीतिक पार्टियों ने लोकतंत्र में अपना महत्व साबित किया है। सबूत के तौर पर कुछ दशकों में संपन्न विधानसभा चुनाव परिणाम हैं। इनसे स्पष्ट है कि जब स्थापित राष्ट्रीय दल मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते तो स्थानीय नेतृत्व को भी अवसर देने से अवाम नहीं झिझकती। यह अलग बात है कि नए उभरे राजनीतिक दल भी लोकतांत्रिक परंपराओं का पालन करने के नजरिये से बहुत कामयाब नहीं रहे हैं। उनमें संगठन के चुनाव समय पर नहीं होते और उनके संस्थापक अध्यक्ष सारी उमर पार्टी के चौधरी बने रहते हैं। वे चाहते हैं कि पार्टी में उनकी अनुमति के बिना पत्ता भी नहीं खड़के। जब वे नहीं रहते तो उनके परिवार को संगठन-सत्ता मिल जाती है। इन स्थितियों में लोकतांत्रिक कर्तव्य और मतदाताओं की सेवा हाशिये पर चली जाती है। सामंती सोच नई-नवेली पार्टी पर हावी हो जाती है। नए निजाम समझते हैं कि मतदाता को उसके दर पर आना चाहिए, उसे मतदाता के पास जाने की जरूरत नहीं है। जम्हूरियत के दायरे में अधिनायकवादी सोच के पनपने का यह भी एक कारण है। इसके बावजूद मानना होगा कि स्वस्थ लोकतंत्र के गुलदस्ते में जिस तरह हर मजहब, जाति-उपजाति और विचारधारा के फूल महकते हैं, उसी तरह उसमें नए-नए राजनीतिक दलों के पनपने और विकसित होने की भरपूर संभावना है। बड़ी और राष्ट्रीय पार्टियां अगर लोकतंत्र में विस्तार करने के लिए आजाद हैं तो छोटे, प्रादेशिक और क्षेत्रीय दलों का रास्ता भी किसी ने नहीं रोका है।

सवाल यह है कि इन प्रादेशिक पार्टियों ने क्या अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है? व्यावहारिक धरातल पर इसका उत्तर तनिक निराश करने वाला है। इसे समझने के लिए लगभग तीन दशक पहले जाना होगा, जब हिंदुस्तान में राजनीतिक अस्थिरता का एक दौर आया था। मतदाता बड़ी पार्टियों के कामकाज से निराश हो चला था और वह सियासत में नए क्षत्रपों को प्रवेश की अनुमति देने का मन बना चुका था। मंझोले दलों ने आगाज तो बेहतरीन अंदाज में किया, लेकिन बाद में उनके आंतरिक लोकतंत्र की गाड़ी पटरी से उतर गई। लोकहित के मुद्दे शुरुआत में उनकी पार्टी की प्राथमिकता सूची में रहे, मगर बाद में समूचा दल पार्टी नेतृत्व की झोली में चला गया और व्यक्तिगत स्वार्थ सर्वोपरि हो गए। परिणाम यह हुआ कि यह क्षेत्रीय दल विस्तार नहीं कर सके। वे अपने-अपने राज्य के प्रतिनिधि दल तो बन गए, पर राज्य की सीमाओं से आगे जाकर अपना आकार नहीं बढ़ा सके। लोकतंत्र को इसका नुकसान यह हुआ कि जो मतदाता बड़ी पार्टियों के विकल्प के रूप में इन दलों को आजमाना चाहता था, वह निराश हो गया। इन दलों ने अपना राष्ट्रीय संस्करण लोगों के सामने नहीं रखा। उन्होंने अन्य प्रदेशों में जाकर लोकतंत्र की ताजी हवा की खिड़की नहीं खोली और खुद को बड़ी पार्टियों की पिछलग्गू बना लिया। या तो वे एक गठबंधन में शामिल हुए या फिर उसके प्रतिद्वंद्वी गठबंधन में। यह वही दौर था, जब भारतीय राजनीति में गठबंधन सरकारों की शुरुआत हुई।

इस समय तक वैचारिक आधार कमजोर पड़ने लगा था और सियासत उद्योग की शक्ल लेने लगी थी। इसलिए पूंजी के दखल से खुद को न राष्ट्रीय पार्टियां मुक्त रख पाईं और न ही क्षेत्रीय दल अपने को बचा पाए। कुछ पार्टियों ने तो निजी और आर्थिक हितों को इतना महत्व दिया कि जब तक एक गठबंधन उनके स्वार्थ साधता रहता,तब तक वे उनके साथ रहतीं। जब उनको गठबंधन से मलाई खाने को नहीं मिलती तो पाला बदलने में देर नहीं लगातीं। क्षेत्रीय पार्टियों के इस चरित्र ने लोकतांत्रिक दृष्टि को बड़ी हानि पहुंचाई। यदि इन दलों के मुखिया राष्ट्रीय पार्टियों में एक कार्यकर्ता के रूप में दरी बिछाने और लाउडस्पीकर लगाने का काम किया करते थे तो अब वे बड़े दलों के सहयोगी के रूप में भी यही भूमिका निभा रहे थे। अंतर सिर्फ इतना था कि अब उनकी निजी राजनीतिक दुकान चल निकली थी। वे अपनी जिन महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति बड़े दल में रहते हुए नहीं कर पा रहे थे, बड़े दलों के बराबर बैठकर अब वे मोलभाव करके उसकी पूर्ति करने में लगे थे। लेकिन, यह तो मतदाता ने नहीं चाहा था। वह तो ऐसा विकल्प चाहता था, जो भारतीय लोकतंत्र को अधिक मजबूत बनाता। पर इसके उलट हुआ। राष्ट्रीय दलों ने जब यह देखा तो उन्होंने भी अपने-अपने दल गढ़ने-रचने प्रारंभ कर दिए, जो उनके इशारे पर काम करते हैं। यानी अपना ही पक्ष और अपना ही प्रतिपक्ष। 

इन दिनों इस घातक प्रवृत्ति के दुष्परिणाम देखने को मिल रहे हैं। छोटी पार्टियों में चुनाव के समय विभाजन कराने की एक नई शैली नजर आ रही है। इससे उस प्रादेशिक दल का अपना वोट बैंक बिखरता है, जिसका लाभ राष्ट्रीय दलों को मिल जाता है। इसे रोका जाना आवश्यक है अन्यथा आने वाले दिनों में बड़ी मछली छोटी मछली को निगलती दिखाई देगी, जो किसी भी सभ्य और स्वस्थ लोकतंत्र में स्वीकार करना संभव नहीं है। बिना वैचारिक आधार के क्षेत्रीय अथवा प्रादेशिक पार्टियों का अस्तित्व टिकाऊ नहीं हो सकता। राष्ट्रीय पार्टियां उन्हें अपने पीछे की बेंच पर बैठने के लिए मजबूर करती रहेंगी।

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