ब्लॉग: आनुवांशिक रूप से संवर्धित फसलों पर बननी चाहिए राष्ट्रीय नीति
By पंकज चतुर्वेदी | Updated: August 6, 2024 10:37 IST2024-08-06T10:36:15+5:302024-08-06T10:37:15+5:30
दोनों न्यायाधीश इस बात पर एकमत थे कि केंद्र सरकार को आनुवंशिक रूप से संवर्धित (जीएम) फसलों पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार चाहिए. अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के सामने जाएगा.

आनुवांशिक रूप से संवर्धित फसलों पर बननी चाहिए राष्ट्रीय नीति
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने जेनेटिकली मोडिफाइड अर्थात जी एम सरसों की भारत में व्यावसायिक खेती करने की सरकारी मंजूरी के खिलाफ याचिका पर खंडित फैसला दिया. न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना का आकलन था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति(जीईएसी) की 18 और 25 अक्तूबर, 2022 को सम्पन्न जिस बैठक में इसकी मंजूरी दी गई, वह दोषपूर्ण थी क्योंकि उस बैठक में स्वास्थ्य विभाग का कोई सदस्य नहीं था और कुल आठ सदस्य अनुपस्थित थे.
दूसरी ओर, न्यायमूर्ति संजय करोल का मानना था कि जीईएसी के फैसले में कुछ गलत नहीं है. उन्होंने जीएम सरसों फसल को सख्त सुरक्षा उपायों का पालन करते हुए पर्यावरण में छोड़ने की बात जरूर की . हालांकि दोनों न्यायाधीश इस बात पर एकमत थे कि केंद्र सरकार को आनुवंशिक रूप से संवर्धित (जीएम) फसलों पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार चाहिए. अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के सामने जाएगा.
वैसे जीईएसी आनुवंशिक रूप से संवर्धित (जीएम) फसलों के लिए देश की नियामक संस्था है. लेकिन दो जजों की पीठ ने सुझाव दिया है कि चार महीने के भीतर केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय जी एम फसल के सभी पक्षों, जिनमें कृषि विशेषज्ञों, जैव प्रौद्योगिकीविदों, राज्य सरकारों और किसान प्रतिनिधियों सहित हितधारक शामिल हों, के परामर्श से जीएम फसलों पर राष्ट्रीय नीति तैयार करे. यह किसी से छुपा नहीं है कि भारत में खाद्य तेल की जबरदस्त मांग है लेकिन 2021-22 में 116.5 लाख टन खाद्य तेलों का उत्पादन करने के बावजूद, भारत को 141.93 लाख टन का आयात करना पड़ा.
अनुमान है कि अगले साल 2025-26 में यह मांग 34 मिलियन टन तक पहुंच जाएगी. हमारे खाद्य तेल के बाजार में सरसों के तेल की भागीदारी कोई 40 फीसदी है. ऐसा दावा किया गया कि यदि सरसों उत्पादन में जी एम बीज का इस्तेमाल करेंगे तो फसल 27 प्रतिशत अधिक होगी, जिससे तेल आयात का खर्च काम होगा. हालांकि यह तो सोचना होगा कि सन् 1995 तक हमारे देश में खाद्य तेल की कोई कमी नहीं थी. फिर बड़ी कंपनियां इस बाजार में आईं. उधर आयात कर कम किया गया और तेल का स्थानीय बाजार बिल्कुल बैठ गया.
दावा यह भी है कि इस तरह के बीज से पारंपरिक किस्मों की तुलना में कम पानी, उर्वरक और कीटनाशकों की आवश्यकता होती है और मुनाफा अधिक. लेकिन जी एम फसलों, खासकर कपास को लेकर हमारे पिछले अनुभव बताते हैं कि ऐसे बीजों के दूरगामी परिणाम खेती और पर्यावरण दोनों के लिए भयावह हैं.