ब्लॉग: एक बार फिर मौका चूक गया विपक्ष
By अभय कुमार दुबे | Updated: December 12, 2023 09:37 IST2023-12-12T09:33:16+5:302023-12-12T09:37:32+5:30
जब भी भाजपा और नरेंद्र मोदी किसी राजनीतिक संकट का सामना करते हैं, विपक्ष उन्हें पहले से भी ज्यादा मजबूत वापसी का मौका दे देता है।

फाइल फोटो
साल 1984 में कांग्रेस ने सारे देश में विपक्ष का सफाया कर दिया था, लेकिन दो-तीन साल में ही विपक्ष कांग्रेस के मुकाबले जमकर खड़ा हो गया और उसने 1989 में उसे बहुमत पाने से रोक दिया। भाजपा की 2014 और 2019 में जीत तो कांग्रेस की उस जीत के आगे बहुत छोटी है, फिर भी विपक्ष उनका बाल बांका भी नहीं कर पा रहा है।
विपक्ष इतना अप्रासंगिक तो उस समय भी नहीं हुआ था जब कांग्रेस ने 1952, 1957 और 1962 के चुनावों को कश्मीर से कन्याकुमारी तक लगातार जीता था। सोचने की बात है कि जो तब नहीं हुआ, वह अब क्यों हो रहा है। पिछले दस साल की चुनावी राजनीति पर गहरी निगाह डाली जाए तो एक दिलचस्प तथ्य यह सामने आता है कि जब भी भाजपा और नरेंद्र मोदी किसी राजनीतिक संकट का सामना करते हैं, विपक्ष उन्हें पहले से भी ज्यादा मजबूत वापसी का मौका दे देता है।
वोटों के मोर्चे पर मोदी के पहले संकट की शुरुआत सत्तारूढ़ होने के नौ महीने बाद ही हो गई थी। फरवरी, 2015 में पहले आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा में भाजपा का तकरीबन सफाया कर दिया, और फिर साल के आखिरी महीनों में बिहार में महागठबंधन के हाथों उसे बुरी तरह पराजित होना पड़ा। इसी के तुरंत बाद मार्गदर्शक मंडल के बुजुर्ग नेताओं द्वारा लिखे पत्र ने नेतृत्व पर सवालिया निशान लगा दिए।
2016 में मोदी ने नोटबंदी का धमाकेदार कदम उठाकर अपनी मजबूती पर उमड़ रहे शंका के बादलों को साफ करने की कोशिश की लेकिन उनकी वास्तविक परीक्षा तो 2017 के फरवरी-मार्च में होने वाले उ.प्र. विधानसभा चुनावों में होने वाली थी।
अगर विपक्ष इन चुनावों में दिल्ली या बिहार के मुकाबले आधा-पौना प्रदर्शन भी कर देता तो मोदी का वर्चस्व स्थापित होने से पहले ही लड़खड़ा जाता। अमित शाह ने उस समय कहा भी था कि अगर विपक्ष उ.प्र. के चुनावों को नोटबंदी पर जनमत संग्रह के रूप में देखना चाहता है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। जाहिर है वह चुनाव मोदी-शाह के लिए ‘तख्त या तख्ता’ की तरह था।
हम जानते हैं कि विपक्ष अपनी यह जिम्मेदारी निभाने में इतनी बुरी तरह से नाकाम रहा कि भाजपा को तीन-चौथाई बहुमत मिला। नोटबंदी की आर्थिक विफलताओं को चुनावी कामयाबी ने छिपा लिया। अगर उ.प्र. में भाजपा चूकती तो संदेश यह जाता कि जनता मोदी को खुला हाथ नहीं देना चाहती लेकिन चूका विपक्ष और उसके बाद मोदी ने 2022 तक मुड़ कर नहीं देखा।
2023 की शुरुआत भी भाजपा के लिए संकट के वर्ष की तरह हुई। गुजरे साल के आखिरी महीने में हिमाचल की पराजय, भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को मिले उछाल, महंगाई-बेरोजगारी के दंश, कर्नाटक की बहुचर्चित हार और दस साल में पहली बार बने भाजपा विरोधी विपक्षी मोर्चे ने सवाल उठा दिया कि 2024 का लोकसभा चुनाव मोदी के लिए मुश्किल तो नहीं होने जा रहा है?
इस सवाल का जवाब म.प्र., छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना के चुनावी संग्रामों से मिलने वाला था। एक बार फिर विपक्ष के सामने 2015 जैसी चुनौती ही थी। इन चुनावों में विपक्ष 2018 वाला प्रदर्शन दोहरा देता तो 2024 की लड़ाई वास्तव में टक्कर वाली होती लेकिन विपक्ष एक बार फिर बुरी तरह नाकाम रहा। उसने न केवल अपनी सरकारें खोईं, बल्कि विपक्षी एकता की पनपती संभावना भी धूमिल हो गई। लगता है लोकसभा चुनाव में 2019 की तरह एक ही टीम मैदान में खेलेगी।
कांग्रेस ने जिस तरह हिंदी पट्टी की तीन विधानसभाओं का चुनाव लड़ा है, उससे तो यही लगता है कि उसने हारी हुई बाजी ही नहीं बल्कि जीती हुई बाजी भी हारने की कला विकसित कर ली है। उसका आलाकमान अपने निर्देशों को गहलोत, कमलनाथ और पटेल से मनवाने में नाकाम रहा।
हकीकत यह है कि अगर भाजपा के खिलाफ सीधी टक्कर वाले आठ राज्यों में कांग्रेस ने प्रभावी लड़ाई नहीं लड़ी तो समझ लीजिए कोई नहीं लड़ा। उसके पास अब बहुत कम समय है। इसी बीच में उसे अपने पिटे हुए नेताओं का विकल्प खोजना है, इंडिया गठबंधन को झाड़-पोंछ कर खड़ा करना है और विपक्ष के एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम को बिना देर किए तैयार कर लेना है।