Local body elections: विगत 16 सितंबर को मुंबई में भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के ‘विजय संकल्प सम्मेलन’ में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने स्थानीय निकाय चुनावों के लिए पार्टी का बिगुल फूंक दिया. उनका आक्रामक अंदाज कुछ वैसा ही था, जैसा उन्होंने विधानसभा चुनाव के दौरान अपनाया था. यानी विकास की चाशनी में धर्म की राजनीतिक कट्टरता को पक्का कर दिया. मुख्यमंत्री फडणवीस ने भले ही मुंबई के हालात, कोरोना महामारी की परेशानियां, परिवारवाद और असली-नकली शिवसेना जैसा बताकर समूचे राज्य को संदेश देने का प्रयास किया.
वहीं मुंबई भाजपा के अध्यक्ष अमित साटम ने कहीं कोई खान के मुंबई का महापौर न बन जाने की आशंका जताकर सीधी मत विभाजन की रेखा खींच दी. जिस पर प्रतिक्रिया उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी से लेकर महाराष्ट्र तक आ रही है. इस पूरे सम्मेलन में कांग्रेस या फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को निशाने पर नहीं लिया गया.
आक्रमण सीधा शिवसेना के ठाकरे गुट और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) पर था. यह जानते हुए भी कि दोनों तीखी प्रतिक्रियाएं देंगे, लेकिन उसमें भी भाजपा के लाभ की उम्मीद देखी गई. शिवसेना ठाकरे गुट और उसकी मुंबई की संभावित तैयारियों को उड़ाते हुए सत्ताधारी भाजपा महागठबंधन को आगे करती नजर आई.
उसे इस बात का पूरा अनुमान है कि शिवसेना का ठाकरे गुट, मनसे, कांग्रेस और राकांपा (शरद पवार गुट) एक भी हो गए तो भी चुनावों में असहज ही रहेंगे. इसलिए भविष्य की स्थितियों का लाभ लेने की तैयारी अभी से आरंभ कर देनी चाहिए. मुख्यमंत्री फडणवीस ने अपने भाषण में ‘ठाकरे ब्रांड’ को निशाने पर लेते हुए बालासाहब ठाकरे को ही एकमात्र ‘ब्रांड’ माना और 15 हजार सदस्यों वाली ‘बेस्ट क्रेडिट सोसायटी’ के चुनाव में पराजय का स्मरण कराया. उन्होंने कोरोना काल में हुए भ्रष्टाचार को भी आक्रामक ढंग से रखते हुए ‘कफनचोर’ तक की संज्ञा दे डाली.
शिवसेना के असली गुट को भी साफ करते हुए उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना को ही बालासाहब ठाकरे की बताकर चुनावी गठबंधन तक की घोषणा कर डाली. भाजपा के ‘ब्रांड’ के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विश्व स्तर का ‘ब्रांड’ बताकर अन्य किसी नए ब्रांड को भी खारिज कर दिया.
साथ ही अतीत में मूल शिवसेना से गठबंधन टूटने और पिछले महानगर पालिका चुनावों में पुराने समझौतों पर मिले धोखे को भी उजागर किया. मुख्यमंत्री के भाषण में रही कसर को भाजपा प्रमुख साटम ने खान का मुद्दा उठाकर सीधी चुनावी रणनीति तैयार करने की ओर इशारा किया. यह आयोजन मुंबई मनपा चुनाव के लिए भले ही हो, लेकिन इसका स्पष्ट संदेश राज्य के सभी स्थानीय निकायों के लिए था.
जिसकी वजह मुख्यमंत्री के साथ पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सहित अनेक वरिष्ठ नेताओं का मंच पर उपस्थित होना था. कुछ इसी परंपरा में आगे भी आयोजन होंगे और पार्टी की हमलावर सोच को आगे बढ़ाया जाएगा.भाजपा के आक्रामक रवैये पर शिवसेना के ठाकरे गुट और मनसे का जवाब आना तय था.
ठाकरे गुट ‘ब्रांड’ के मामले में अपनी स्थिति साफ करने की बजाय विषय को पार्टी के पुराने नेता अनंत दिघे को बीच में लाकर भटकाने में जुट गया. उसका मानना था कि प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिन के विज्ञापन में बालासाहब ठाकरे और अनंत दिघे का फोटो एक साथ नहीं छापा जाना चाहिए था.
हालांकि शिवसेना का शिंदे गुट अपनी अलग पहचान बनाने में लंबे समय से दोनों का फोटो एक साथ उपयोग में लाता देखा गया है. लिहाजा यह कोई नई बात नहीं थी. ठाकरे गुट ने दिघे के बहाने उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उनके बेटे सांसद श्रीकांत शिंदे पर निशाना साधा. मगर वह भाजपा के उठाए मुद्दों के विरुद्ध अपने मुकाबले को समझा नहीं सका.
कोरोना महामारी और मुंबई के विकास की अड़चनों पर तथ्यात्मक जवाब नहीं दे सका. मनसे ने खान महापौर के सवाल पर गुजराती महापौर को बीच में ला दिया. स्पष्ट है कि भाजपा की ताजा रणनीति पर सीधा हमला करने की बजाय रक्षात्मक खेल को अपनाया गया. संभव है कि शिवसेना ठाकरे गुट और मनसे संयुक्त रूप से अपने वार्षिक दशहरा सम्मेलन का आयोजन करें और उसमें भाजपा को उत्तर दिया जाए.
फिर भी जो सत्ताधारी गठबंधन ने पासे पहले फेंक दिए हैं, यदि उनसे कोई मुकाबला होता है तो वह हमले से अधिक बचाव ही होगा. भाजपा ने ठाकरे बंधुओं के मिलन से यह भांप लिया है कि उनकी नजदीकियां दोनों दलों के संगठन में निचले स्तर तक परिस्थितियों को सामान्य नहीं बना पाएंगी. एक साथ रहने पर ‘ब्रांड’ मिला-जुला होगा.
जिसके नफा-नुकसान अपनी जगह हैं. यदि कांग्रेस और राकांपा (शरद पवार गुट) से गठबंधन करना पड़ा तो उन्हें धर्मनिरपेक्ष चेहरा बनाना पड़ेगा, जो बहुत मुश्किल होगा. विधानसभा चुनाव में भी कोशिशें विफल ही रही थीं. इसीलिए भाजपा ने शिवसेना के पुराने नारे ‘खान चाहिए कि बाण’ पर पहले से कब्जा कर मुंबई में मेयर के चेहरे के बहाने अपनी नीति को लेकर स्पष्टता ला दी है.
मनसे की प्रतिक्रिया गुजराती मतदाताओं पर असर डालेगी. पहले ही गुजराती-मारवाड़ी समाज कबूतरखाने और भाषा विवाद को लेकर नाखुश है. भाजपा ने सांप्रदायिक विभाजन की नींव रखकर हिंदी-मराठी के मुद्दे को भी किनारे कर नया रास्ता खोल दिया है. समूची प्रारंभिक तैयारी में भाजपा ने साफ किया है कि वह सत्ताधारी है, इसलिए वह समूचे विपक्ष को निशाने पर नहीं लेना चाहती है.
उसकी नजर कमजोर पक्ष पर है. उसका साथ देने वालों पर नहीं है. कांग्रेस और राकांपा जन सामान्य से जुड़े मुद्दों पर सरकार की विफलता उठाएंगे. न चाहते और पूरी तौर जिम्मेदार न होते हुए भी पिछले 11 साल के कार्यकाल की जिम्मेदारी लेनी ही होगी. इस स्थिति में शिवसेना ठाकरे गुट को आगे लाकर खेल में उलझाना ही वर्तमान समय की सबसे बेहतर तरकीब है.
जिसमें फिलहाल भाजपा ने बढ़त हासिल कर ली है. शिवसेना का धनुष बाण अपने हाथ में लेकर लक्ष्यों पर निशाना साधने की कोशिश आरंभ कर दी है. त्यौहारी मौसम में कुछ तीर और कुछ तुक्के अवश्य लगेंगे. मगर भाजपा अपनी कमी-कमजोरी को ढंककर आगे बढ़ने में जुटी रहेगी.