एक विचित्र खबर आ रही है कि बिहार की मतदाता सूची में बड़ी संख्या में नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार के लोगों के भी नाम मिले हैं. भारत-नेपाल सीमा पर इस तरह की आशंकाएं पहले भी व्यक्त की जाती रही हैं क्योंकि दोनों देशों की सरहद पर बसे परिवारों में शादी-ब्याह होते रहे हैं लेकिन मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर नेपाल में बसे लोगों के नाम होने की बात सामने नहीं आई.
इक्का-दुक्का मामले सामने आते रहे लेकिन इस बार बिहार चुनाव से पहले मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम शुरू हुआ तो जैसे बवाल मच गया. विभिन्न राजनीतिक दलों ने हल्ला मचाया. यहां तक कि इसके खिलाफ रैली भी निकाली गई लेकिन अब जब प्रामाणिक रूप से गड़बड़ियों के मामले सामने आ रहे हैं तो कुछ नई चिंताएं शुरू हो गई हैं.
सबसे पहले यह समझिए कि गड़बड़ी हुई कहां है? खासकर किशनगंज, अररिया, कटिहार तथा पूर्णिया जिले को लेकर पहले से कहा जाता रहा है कि यहां की आबादी का प्रारूप बदल रहा है. न केवल बांग्लादेशी घुसपैठिए बल्कि म्यांमार के रोहिंग्या इतनी बड़ी संख्या में आ चुके हैं कि इन चार जिलों की डेमोग्राफी ही बदल गई है. किशनगंज में इन घुसपैठियों के कारण मुस्लिम आबादी 68 प्रतिशत हो चुकी है. अररिया में यह संख्या 50 फीसदी और कटिहार में 45 प्रतिशत हो चुकी है.
यदि किसी जगह पर मुस्लिम आबादी स्वाभाविक रूप से बढ़ती है तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी? लेकिन जब आबादी इस कारण बढ़े कि दूसरे देश के घुसपैठिए जनजीवन का हिस्सा बन जाएं तो फिर वहां की स्थानीय आबादी की हालत क्या होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. दुर्भाग्य है कि कुछ राजनीतिक दल इन घुसपैठियों को केवल वोट की नजर से देख रहे हैं. उनके लिए देश से ज्यादा यह महत्वपूर्ण हो गया है कि चुनाव कैसे जीता जाए!
यही कारण है कि सरकार को दबाव में लाने की हर संभव कोशिश की जा रही है लेकिन चुनाव आयोग ने तय कर रखा है कि किसी भी घुसपैठिए के पास अब वोट देने का अधिकार नहीं रहेगा. यह अच्छी बात है लेकिन इससे भी बड़ी बात और बड़ी चुनौती इस बात का पता लगाना है कि इन घुसपैठियों के नाम मतदाता सूची में आए कैसे?
क्या मतदाता सूची बनाने वाले कर्मचारियों ने सहज ही ध्यान नहीं दिया और बिना जांच परख किए ही जिनके नाम आए, सबको मतदाता सूची में शामिल कर लिया या फिर कोई ऊपरी दबाव था? यदि ऊपरी दबाव था तो वो कौन लोग थे जिन्होंने इस तरह राष्ट्रदोह को बढ़ावा दिया.
इसकी गहराई से जांच होनी चाहिए और जो लोग भी जिम्मेदार हैं, उन्हें जेल के सींखचों में पहुंचाया जाना चाहिए. कुछ लोगों को इन घुसपैठियों से सहानुभूति हो सकती है कि वे अपने देश में परेशान रहे होंगे, इसलिए भाग कर भारत आ गए. लेकिन इतनी बड़ी संख्या में लोग कैसे आएंगे?
इस बात की पूरी आशंका है कि इसके लिए कुछ बड़े गिरोह काम कर रहे होंगे. अभी तो चर्चा केवल बिहार के चार जिलों को लेकर शुरू हुई है जिनकी डेमोग्राफी बदल गई है. अभी दिल्ली से लेकर मुंबई और कोलकाता की तो बात ही नहीं हो रही है जहां के बारे में यही पता नहीं है कि कितने घुसपैठिए छिपे बैठे हैं.
यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि इन घुसपैठियों के रूप में जासूस और राष्ट्रद्रोही तत्व छिपे बैठे होंगे जो भारत के लिए गंभीर खतरा बन सकते हैं. इसलिए चुनाव आयोग के इस निर्णय की सराहना की जानी चाहिए कि उसने पूरे देश में मतदाता सूची की गहन जांच करने का निर्णय लिया है.
मतदाता सूची के पुनरीक्षण के बाद हर राज्य में स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया जाना चाहिए जो घुसपैठियों को जेल के सींखचों में पहुंचाए और फिर पूरी प्रक्रिया के साथ उन्हें उनके देश में वापस भेजे. वोट के लालची कुछ राजनीतिक दल तूफान मचाएंगे लेकिन उनकी परवाह नहीं करनी चाहिए.
किसी भी राजनीतिक दल का स्वार्थ राष्ट्रहित से बड़ा नहीं हो सकता. घुसपैठियों को शरण देने वालों को भी जेल के भीतर पहुंचाया जाना चाहिए. देश के समक्ष यह गंभीर संकट है. इस संकट से निपटने के लिए जो जरूरी हो, वह करना ही चाहिए. जब ट्रम्प अमेरिका से घुसपैठियों को निकाल सकते हैं तो हम क्यों नहीं निकाल सकते. जरूरत जीरो टॉलरेंस नीति और सख्त रवैये की है.