बिहार की सत्ता से बाहर हुए कांग्रेस को करीब 35 साल हो गए. अब तो वह उतनी सीटों पर चुनाव भी नहीं लड़ती कि यह कल्पना भी की जा सके कि कांग्रेस सत्ता में आ पाएगी. मौजूदा वक्त की हकीकत यह है कि राजनीतिक रूप से बिहार में कांग्रेस ने खुद का वजूद खत्म कर लिया है. उसकी हैसियत लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल के पिछलग्गू की तरह हो गई है. लालू जैसा चाहते हैं, कांग्रेस वैसा ही डांस करने पर मजबूर है. लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि इस बार शायद लालू प्रसाद यादव कांग्रेस के प्रति कुछ नरमी बरतें और इतनी सीटें कांग्रेस को दें कि उसकी इज्जत रह जाए.
इस सोच का कारण यह भी था कि लालू की विरासत संभालने वाले उनके पुत्र तेजस्वी यादव और कांग्रेस के अघोषित सर्वेसर्वा राहुल गांधी के बीच अच्छी-खासी दोस्ती है. इस दोस्ती के कारण ही बिहार में वोटर अधिकार यात्रा में गजब की एकजुटता देखी जा रही थी. मगर लालू यादव ने बीच में ही कांग्रेस को कमजोर करने की नई चाल चल दी.
जिस फायर ब्रांड नेता कन्हैया कुमार पर राहुल गांधी भरोसा कर रहे थे, लालू ने शर्त रख दी कि वोटर अधिकार यात्रा में वो कन्हैया रथ पर मौजूद नहीं रहेंगे. विडंबना देखिए कि कांग्रेस इस हालत में भी नहीं है कि वह लालू की बात को दरकिनार करती और कहती कि आप अपनी पार्टी से मतलब रखिए, हम तो कन्हैया कुमार को साथ रखेंगे! मगर राहुल ऐसा नहीं कह पाए.
कन्हैया को रथ पर चढ़ने भी नहीं दिया गया. यह कहना मुश्किल है कि राहुल ने स्टैंड क्यों नहीं लिया? कन्हैया कुमार युवाओं के एक वर्ग को खासे आकर्षित करने वाले नेता हैं और कांग्रेस को इससे फायदा ही होता. मगर लालू जानते हैं कि किसी भी युवा नेता का बिहार में खड़े होना तेजस्वी यादव के लिए चुनौतपूर्ण हो सकता है.
राहुल को शायद यह लग रहा था कि सीटों के मामले पर राजद उनके साथ सहृदयता बरतेगा और कम से कम 70 सीट तो कांग्रेस के पास आ ही जाएंगी लेकिन लालू तो 61 सीट से ज्यादा देने को तैयार ही नहीं हुए. इसका नतीजा है कि दरार स्पष्ट रूप से पैदा हो चुकी है. इधर कांग्रेस ने जाले विधानसभा क्षेत्र से राजद नेता ऋषि मिश्रा को कांग्रेस के सिंबल पर चुनाव लड़ने के लिए मना लिया.
इससे राजद में नाराजगी पैदा हो गई. पहले चरण के नामांकन तक स्पष्ट रूप से महागठबंधन की गांठ खुलती हुई नजर आई. निश्चय ही इससे चुनाव परिणाम प्रभावित होंगे.राजनीति का विश्लेषण करने वाले और लालू प्रसाद यादव की राजनीति को करीब से जानने वाले समझ रहे हैं कि लालू ने राहुल गांधी को गच्चा दे दिया है.
वे नहीं चाहेंगे कि कांग्रेस अपनी जमीन वापस कभी पा सके. उन्हें भाजपा की राजनीति से उतना खतरा महसूस नहीं होता जितना कि कांग्रेस की राजनीति से! कांग्रेस भले ही सत्ता से बेदखल है लेकिन उसके नामलेवा अभी भी गांव-गांव में हैं. इसलिए लालू चाहते हैं कि कांग्रेस का बेड़ा गर्क होता रहे. जहां भी मौका मिलता है, वे कांग्रेस को कमजोर करने का अवसर नहीं चूकते.
पिछले साल महागठबंधन के नेतृत्व का सवाल उठा था तो कांग्रेस को भरोसा था कि लालू प्रसाद यादव साथ देंगे लेकिन लालू ने तो ममता बनर्जी का समर्थन कर दिया था. पिछली बार बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद राजद नेता शिवानंद तिवारी ने पराजय के लिए राहुल गांधी को दोषी ठहरा दिया था.
उन्होंने कहा था कि कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन राहुल गांधी ने केवल 3 रैलियां कीं. कांग्रेस केवल 19 सीटों पर ही जीत पाई. इन सीटों पर राजद ने चुनाव लड़ा होता तो परिदृश्य कुछ और ही होता. निश्चय ही तिवारी ने बिना लालू यादव के इशारे के, ऐसे कड़वे वचन न बोले होते! लालू भी हर मौके पर कांग्रेस को लेकर ऐसा बयान देते रहे हैं, जिससे कांग्रेस कमजोर हो.
1989 में भागलपुर के भीषण दंगों के लिए उन्होंने कांग्रेस को ही दोषी ठहराया था और अगले साल हुए चुनाव में कांग्रेस चारों खाने चित्त हो गई थी. जनता दल को जीत मिली और लालू मुख्यमंत्री बने. उन्होंने सत्ता संभालते ही एमवाय ( मुस्लिम और यादव) समीकरण की राजनीति शुरु की और कांग्रेस के पतन का दौर शुरू हुआ. तब से कांग्रेस सत्ता में आई ही नहीं.
आंकड़ों पर नजर डालें तो 1995 के चुनाव में भी कांग्रेस नहीं संभल पाई और उसे 334 सदस्यों वाली विधानसभा में केवल 29 सीटें मिलीं. 1998 के लोकसभा के चुनाव के पहले जनता दल टूट चुका था और लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल का उदय हो चुका था. उस चुनाव में पहली बार राजद और कांग्रेस ने साथ चुनाव लड़ा.
कमाल देखिए कि राजद ने 54 सीटों में से केवल 8 सीटें ही कांग्रेस के लिए छोड़ीं और कांग्रेस ने उसे स्वीकार भी कर लिया. कांग्रेस ने 4 पर ही जीत हासिल की. अगली बार यानी 1999 में कांग्रेस को केवल 2 सीटें मिलीं और कांग्रेस को लगा कि राजद के साथ रहना घाटे का सौदा है तो उसने गठबंधन तोड़ लिया.
2000 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने अकेले तो लड़ा ही, लालू को भ्रष्टाचार का प्रतिमान भी बनाया लेकिन कांग्रेस को केवल 23 सीटें मिलीं और लालू का दल सत्ता से दूर रह गया. एक सप्ताह के लिए नीतीश मुख्यमंत्री बने. इधर कांग्रेस को पता नहीं क्यों लालू से फिर प्यार हो गया और दोनों ने मिलकर सरकार बना ली. नीतीश को उखाड़ फेंका.
2005 विधानसभा चुनाव में फिर राहें जुदा हो गईं. किसी को बहुमत नहीं मिलने से राष्ट्रपति शासन लगा और दोबारा चुनाव हुए, राजद और कांग्रेस में फिर मिलन हो गया. 2009 का लोकसभा चुनाव और 2010 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने अकेला लड़ा. विधानसभा में केवल 4 सीटें मिलीं.
2014 में फिर मिलन हो गया लेकिन कांग्रेस ने केवल 2 सीटें जीतीं. उसके बाद की कहानी सबको पता है. राजद और कांग्रेस के गठबंधन से कांग्रेस को कभी कोई फायदा नहीं हुआ बल्कि राजद को ही मजबूती मिली. लालू यादव की रणनीति कामयाब रही. कांग्रेस मुकाबले में कहीं नहीं है. वह राजद की पिछलग्गू बनी हुई है.