क्रिकेट की तरह राजनीति भी अस्थिरता से भरपूर है. कब क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता. महाराष्ट्र में 2019 में शिवसेना ने राकांपा तथा कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर चौंका दिया तो ढाई साल बाद शिवसेना विधायकों ने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में बगावत कर भाजपा को गले लगा लिया तथा राज्य में नई सरकार बन गई.
बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़कर लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्ववाले गठबंधन के साथ आगे बढ़ने की राह चुनी. मंगलवार को उन्होंने भाजपा से गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और बुधवार को महागठबंधन के नेता के रूप में आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए.
अलग-अलग पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाने में अकेले नीतीश कुमार को ही महारत हासिल नहीं है. बसपा सुप्रीमो मायावती भी कभी समाजवादी पार्टी तो कभी भाजपा के साथ गठबंधन कर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं. भाजपा ने भी सत्ता के लिए कई बार ऐसे दलों से हाथ मिलाया जिनसे उसकी कभी नहीं पटी. उसने महबूबा मुफ्ती की पार्टी के साथ मिलकर कश्मीर में सरकार बनाने से परहेज नहीं किया.
बिहार में नीतीश दो बार भाजपा को झटका दे चुके हैं. 2017 में उन्होंने राजद से गठबंधन तोड़कर भाजपा का सहारा लेकर नई सरकार बनाने में संकोच नहीं किया. बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी को कभी अकेले जनादेश नहीं मिला. वे हमेशा गठबंधन की बैसाखी के सहारे ही मुख्यमंत्री बने. उनके बारे में एक बात तो पक्की है कि वे हवा का रुख तथा अपने मित्र और प्रतिद्वंद्वी दोनों की चाल को पहले से भांप लेते हैं और सामने वाला कोई चाल चले, उसके पहले ही उसे चित कर देते हैं.
बिहार के ढाई साल पहले हुए चुनाव में नीतीश ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था लेकिन उनकी जद(यू) महज 43 सीटों पर सिमट गई थी. उन्हें यह एहसास हो गया था कि भाजपा ने उन्हें चुनाव में अप्रत्यक्ष रूप से भारी नुकसान पहुंचाया है, मगर वे खून का घूंट पी गए और हाथ में ‘कमल’ का साथ लेकर सरकार बना ली. पिछले कुछ महीनों से नीतीश तथा भाजपा के बीच संबंध कुछ अच्छे नहीं चल रहे थे. नीतीश राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बुलाई गई नीति आयोग की बैठक में नहीं गए.
पिछले सप्ताह केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जब पटना गए, तब भी नीतीश ने उनसे मुलाकात नहीं की. बिहार में कुछ दिनों से राजनीति के गलियारों में यह अटकलें तेज थीं कि जद(यू) को तोड़कर भाजपा नीतीश का तख्ता पलट सकती है, कहते हैं बिना आग के धुआं नहीं उठता. बिहार में भी ऐसा ही था. भाजपा की रणनीति पर नीतीश की पैनी नजर थी. जब उन्हें खतरा बढ़ता महसूस हुआ तो उन्होंने भाजपा को ही पटखनी दे दी.
नीतीश पिछले चुनाव में ही यह ऐलान कर चुके हैं कि वे विधानसभा का अगला चुनाव नहीं लड़ेंगे. उनके ताजा कदम से यह धारणा मजबूत हो गई कि वे विपक्षी दलों का साथ लेकर लोकसभा समर में उतरेंगे. उन्हें भावी प्रधानमंत्री का चेहरा बनाने के लिए विपक्ष तैयार होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता.
नीतीश की छवि कुशल प्रशासक तथा ईमानदार नेता के रूप में रही है, मगर विपक्ष में प्रधानमंत्री पद के दावेदार कम नहीं हैं. बहरहाल, बिहार में पाला बदलकर नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बन तो गए हैं लेकिन राजद के नेताओं की कार्यशैली से वह कितना तालमेल स्थापित कर पाते हैं, यह देखना होगा.