नीतीश विरोधी हवा और भाजपा की रणनीति, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By अभय कुमार दुबे | Updated: November 3, 2020 13:30 IST2020-11-03T13:29:06+5:302020-11-03T13:30:31+5:30

बिहार चुनावः नीतीश का यह कार्यकाल थका हुआ जरूर साबित हुआ, लेकिन उसके विरोध में नाराजगी को मुख्य तौर पर ताकतवर पिछड़ी जातियों (जैसे यादव), ताकतवर दलित जातियों (जैसे दुसाध) और ऊंची जातियों (ब्राहाण, ठाकुर, वैश्य, कायस्थ और भूमिहार) ने हवा दी है.

Bihar assembly elections 2020 cm nitish kumar bjp jdu nda rjd lalu yadav pm narendra modi | नीतीश विरोधी हवा और भाजपा की रणनीति, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

नीतीश के उम्मीदवार लड़ रहे हैं वहां ऊंची जातियां जनता दल (एकीकृत) को वोट न देकर महागठबंधन का दामन थाम सकती हैं.

Highlightsसत्तारूढ़ गठजोड़ पूरी तरह से एकताबद्ध होकर चुनाव लड़ता तो चुनाव पूरी तरह से जीता हुआ था.नीतीश का कद छोटा हो जाए, ताकि भाजपा को देर-सबेर मुख्यमंत्री का पद हासिल करने में कामयाबी मिल सके.पंद्रह साल’ का फिकरा उछाला था, ताकि लालू के जंगल राज के मुकाबले सुशासन बाबू की हुकूमत को पेश किया जा सके.

बिहार का चुनाव दूसरे दौर के मतदान तक आते-आते मुख्य तौर पर दो धुरियों के इर्द-गिर्द सिमटते दिखने लगा है. एक धुरी है मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ बनती जा रही लहर की. इसके बारे में दो तरह की समझ मौजूद है. पहली समझ यह है कि नीतीश का यह कार्यकाल थका हुआ जरूर साबित हुआ, लेकिन उसके विरोध में नाराजगी को मुख्य तौर पर ताकतवर पिछड़ी जातियों (जैसे यादव), ताकतवर दलित जातियों (जैसे दुसाध) और ऊंची जातियों (ब्राहाण, ठाकुर, वैश्य, कायस्थ और भूमिहार) ने हवा दी है.

 ये सामाजिक ताकतें किसी न किसी प्रकार नीतीश कुमार से छुटकारा पा लेना चाहती हैं. लेकिन, इसके विपरीत ईबीसी (अतिपिछड़ी जातियां), महादलित जातियां (जैसे मुसहर) और महिलाएं (जिन्हें नीतीश ने शराबबंदी जैसे कदम उठा कर अपनी ओर खींचा था) इन नीतीश विरोधी माहौल के प्रति कोई प्रतिक्रिया न करके खामोश बैठे हैं. दूसरी समझ यह है कि यह सरकार विरोधी असंतोष भाजपा द्वारा किए गए ‘सेल्फ गोल’ का नतीजा है.

अगर भाजपा दुसाधों के नेता चिराग पासवान की पार्टी लोजपा को शह देकर नीतीश के पैर काटने की सुपारी न देती, और सत्तारूढ़ गठजोड़ पूरी तरह से एकताबद्ध होकर चुनाव लड़ता तो चुनाव पूरी तरह से जीता हुआ था. लेकिन भाजपा ने दांव यह लगाया कि राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़) जीते, पर नीतीश का कद छोटा हो जाए, ताकि भाजपा को देर-सबेर मुख्यमंत्री का पद हासिल करने में कामयाबी मिल सके. इस जटिल रणनीति का नतीजा यह निकला कि लोजपा ने जैसे ही नीतीश विरोधी प्रचार शुरू किया, वैसे ही सरकार विरोधी दबी हुई भावनाओं को ‘ट्रिगर प्वाइंट’ मिल गया. जो नाराजगी चुनाव से पहले कतई नहीं दिख रही थी, वह अचानक उभर कर सामने आ गई.

अब भारतीय जनता पार्टी कुछ घबराई हुई लग रही है. उसकी तरफ से पूरी कोशिश है कि किसी तरह से लालू यादव के जंगल राज का मुद्दा चला कर अपने और नीतीश कुमार के जनाधार के एक अच्छे-खासे हिस्से को महागठबंधन की तरफ खिसकने से रोक लिया जाए. यह अलग बात है कि चुनावी मुहिम की शुरुआत से ही अपनाई जा रही यह रणनीति पहले चरण के मतदान तक पचास फीसदी तो नाकाम हो ही चुकी थी. ध्यान रहे कि राजग ने पहले ‘उनके पंद्रह साल बनाम हमारे पंद्रह साल’ का फिकरा उछाला था, ताकि लालू के जंगल राज के मुकाबले सुशासन बाबू की हुकूमत को पेश किया जा सके.

लेकिन जल्दी ही इस रणनीति की हवा निकल गई. क्योंकि पंद्रह साल का कथित सुशासन जैसे ही आर्थिक विकास, पूंजी निवेश और रोजगार के अवसरों की कसौटी पर कसा गया, वैसे ही पता चल गया कि प्रदेश का विकास अगर लालू के राज में नहीं हुआ था तो नीतीश के राज में भी नहीं हुआ है. भाजपा को अंदेशा यह है कि जहां उसके अपने उम्मीदवार नहीं हैं या जहां नीतीश के उम्मीदवार लड़ रहे हैं वहां ऊंची जातियां जनता दल (एकीकृत) को वोट न देकर महागठबंधन का दामन थाम सकती हैं.

अगर ऐसा हो गया तो तेजस्वी प्रसाद यादव के पिता लालू यादव द्वारा नब्बे के दशक में बनाया गया वही सामाजिक गठजोड़ एक बार फिर उभर आएगा जो बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति की धुरी बन गया था. ऐसी स्थिति में नीतीश-भाजपा की जोड़ी एक-दूसरे के वोटों को पा कर एक बार फिर जिताऊ समीकरण बनाने का लक्ष्य नहीं वेध पाएगी.

चूंकि जंगल राज के आरोप के मुकाबले सुशासन बाबू का विकल्प है ही नहीं, इसलिए यह भी हो सकता है कि बार-बार लालू राज का जिक्र करने से पिछड़ी और दलित जातियों को कथित जंगल राज के बजाय लालू का वह सामाजिक न्याय न याद आ जाए जिसके तहत कमजोर जातियों को रंग-रुतबे वाले तबकों के मुकाबले मिलने वाली इज्जत की राजनीति का पहला मनोवैज्ञानिक उछाल मिला था.

यानी भाजपा की यह आधी रणनीति भी उसके खिलाफ उल्टी बैठ सकती है. कहना न होगा कि अगर दुर्बल समुदायों के दिमाग में लालू राज के इस ऐतिहासिक योगदान की वापसी हो गई तो नीतीश की राजनीति तो खात्मे के कगार पर पहुंच ही जाएगी, भाजपा की अभी तक की सभी कोशिशें मटियामेट हो जाएंगी.

भाजपा की तरफ से प्रचार यह किया जा रहा है कि उनके बाबू साहब वाले वक्तव्य के कारण ऊंची जातियों के बीच महागठबंधन की बनती हुई सत्ता को बहुत धक्का लगा है. दरअसल, अगर ऊंची जातियां महागठबंधन को वोट देंगी तो उसका कारण नीतीश के विरोध में संचित सरकार विरोधी भावनाओं से ज्यादा जुड़ा होगा.

कुल मिलाकर बिहार का चुनाव काफी उलझ गया है. कहना न होगा कि इसकी जिम्मेदारी पूरी तरह से भाजपा की उस रणनीति को जाती है जिसके तहत राजग की एकता को जान-बूझकर तोड़ा गया ताकि नीतीश की लकीर को छोटा किया जा सके.

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