आतंकवाद पर बड़े देश अपना रहे दोहरा रवैया, संसद में 16 घंटे तक गंभीर बहस

By राजेश बादल | Updated: July 31, 2025 03:18 IST2025-07-31T03:17:49+5:302025-07-31T03:18:57+5:30

भारत में सीमापार से आतंकवादी हमलों पर लंबे समय तक विश्व के अनेक महत्वपूर्ण देश भारत के रुख का समर्थन करते नजर आते थे. लेकिन अब तस्वीर बदलती दिखाई दे रही है.

Big countries adopting double attitude terrorism Serious debate 16 hours both houses Parliament over 2 days blog rajesh badal | आतंकवाद पर बड़े देश अपना रहे दोहरा रवैया, संसद में 16 घंटे तक गंभीर बहस

सांकेतिक फोटो

Highlightsवैश्विक स्तर पर दहशतगर्दी की सर्वमान्य परिभाषा का कोई एक प्रामाणिक संस्करण नहीं हो सकता.आतंकवाद को संरक्षण देने वाले पाकिस्तान को कोसा जाए. ऐसा नहीं हुआ. चीन के दबाव में ऐसा हुआ. चीन ने तो 1949 से ही अपने आतंकी इरादे साफ कर दिए थे.

पहलगाम में भारतीय पर्यटकों का सामूहिक संहार अब आतंकवादी हमला नहीं कहा जा सकता. यह अघोषित युद्ध ही था. संसद के दोनों सदनों में दो दिन में सोलह घंटे तक गंभीर बहस से यह स्वीकार कर लेना चाहिए. सभी दलों के सांसदों ने जिस तरह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस जघन्य वारदात से जुड़े तथ्यों को पटल पर रखा, उससे यह भी उजागर हो गया कि विकसित और अमीर देश आतंकवाद को लेकर नजरिया बदल चुके हैं. अब वैश्विक स्तर पर दहशतगर्दी की सर्वमान्य परिभाषा का कोई एक प्रामाणिक संस्करण नहीं हो सकता.

जो राष्ट्र कभी आतंकवादी वारदातों की खुलकर निंदा करते थे, वे अब आतंकवाद को संरक्षण देने वाले देशों के साथ दावतें उड़ाते हैं. पाकिस्तानी फील्ड मार्शल आसिम मुनीर और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की रसभरी मुलाकात इसका सबसे बड़ा सबूत है. पाकिस्तान, चीन और अन्य देशों के रवैये में आया परिवर्तन अपने आप में इसका प्रमाण है. अंतररष्ट्रीय शिखर संस्थाओं के व्यवहार में भी ऐसा ही बदलाव देखा जा रहा है.          
पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष सार्वजनिक मंचों से यह राग बार-बार अलापते हैं कि कश्मीर में जो चल रहा है, उसे उनका देश समर्थन देता रहेगा तो यह खुलेआम आतंकवाद को संरक्षण देना ही है. मुनीर साफ कहते हैं कि वे कश्मीर को भारत से मुक्त कराने के लिए आतंकी संगठनों को समर्थन जारी रखेंगे. उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा है कि वे अब उन आतंकी अड्डों को फिर से जीवित करने का काम करेंगे.

दूसरी तरफ भारत दशकों से तमाम अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में एकजुट होने की अपील करता रहा है. भारत में सीमापार से आतंकवादी हमलों पर लंबे समय तक विश्व के अनेक महत्वपूर्ण देश भारत के रुख का समर्थन करते नजर आते थे. लेकिन अब तस्वीर बदलती दिखाई दे रही है.

जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने शंघाई सहयोग परिषद के साझा बयान पर दस्तखत करने से इनकार किया था तो साफ था कि भारत चाहता था कि साझा बयान में पहलगाम वारदात की निंदा हो और आतंकवाद को संरक्षण देने वाले पाकिस्तान को कोसा जाए. ऐसा नहीं हुआ. चीन के दबाव में ऐसा हुआ. चीन क्रूर और हिंसक देश है.

वह थियानमन चौक में अपने ही सैकड़ों नौजवानों को गोलियों से भून देता है. दहशतगर्दी से वह अपनी सरकार बचाता है. आज भारत में दशकों से जिसे हम नक्सली हिंसा कहते हैं, वह तो चीन की ही देन है. उसे सरकारी भाषा में माओवादी उग्रवाद ही कहते हैं. प्रसंग के तौर पर बता दूं कि चीन ने तो 1949 से ही अपने आतंकी इरादे साफ कर दिए थे.

जब वहां नई सरकार सत्ता में आई तो भारत ने सहज स्वाभाविक रूप से बधाई भेजी. लेकिन चीन ने उसका उत्तर तक नहीं दिया, उल्टे तेलंगाना में माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी को औपचारिक संदेश भेजा कि भारत की बुर्जुआ सरकार को हिंसक क्रांति के जरिये उखाड़ फेंको. चीन ने हथियार दिए, उग्रवादियों को प्रशिक्षण दिया और आर्थिक मदद भी की.

जब भारत को चीन के समर्थन से इन आतंकवादी गतिविधियों की खबर लगी तो तत्कालीन गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा ने आकाशवाणी पर राष्ट्र के नाम आपात संदेश प्रसारित किया और उसमें बताया कि सेना इन आतंकी शिविरों व उग्रवादी ठिकानों को खत्म करने के लिए कार्रवाई कर रही है. इसके बाद भीषण जंग हुई और भारत के भीतर चल रहे चीन के आतंकी अड्डों को खत्म किया गया.

विडंबना है कि भारत के विरोध में अमेरिका और चीन इन दिनों पाकिस्तान तथा बांग्लादेश का इस्तेमाल कर रहे हैं. यह छिपा हुआ नहीं है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में अमेरिका की कठपुतली सरकारें काम कर रही हैं. पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान अपनी सरकार की बर्खास्तगी के लिए सार्वजनिक रूप से अमेरिका को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं और बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद भी अपनी सरकार के तख्तापलट के पीछे अमेरिका का हाथ बताती रही हैं.

क्या मान लिया जाए कि अमेरिका और चीन जैसा एक-दूसरे के प्रति सार्वजनिक व्यवहार करते हैं, असल में वैसे नहीं हैं!  स्पष्ट है कि वर्तमान में आतंकवाद की परिभाषा बदल चुकी है. अब तो आतंक फैलाकर देशों में तख्तापलट भी किया जा रहा है. यक्ष प्रश्न यही है.  एक दौर वह था जब आतंकवाद की वैश्विक परिभाषा थी. समूचा संसार उस पर एक साथ खड़ा रहता था.

अमेरिका पर अल-कायदा के भीषण हमले और मुंबई में धमाकों की निंदा सारे विश्व ने की थी. पर, अब सब बदल गया है. अब तो देखना होगा कि कौन सा देश आतंकवादी नहीं है. अपने राष्ट्रीय अथवा व्यक्तिगत हितों की खातिर अधिकतर देशों के राष्ट्राध्यक्ष कहीं न कहीं आतंकवाद का सहारा ले रहे हैं.

हिंदुस्तान को गंभीर विचार की आवश्यकता है कि उसे वैश्विक समुदाय से आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष की बार-बार अपील क्यों करनी चाहिए? अब तो उसे सीधी कार्रवाई करनी ही चाहिए. इसके लिए विश्व के किसी देश का प्रमाणपत्र जरुरी नहीं है. अब तो अमेरिका और चीन समेत बड़े, सभ्य, आधुनिक और अमीर देश आतंकवाद की वैसी निंदा नहीं करते, बल्कि उस हिंसा में कहीं न कहीं स्वयं शामिल हो जाते हैं.

कोई देश अपने नागरिकों को ही आतंकित कर रहा है तो कोई मुल्क अपना रौब जमाने के लिए धड़ल्ले से उग्रवाद का सहारा ले रहा है. इजराइल भय से ग्रसित है कि ईरान परमाणु बम न बना ले इसलिए वह उस पर हमला करता है. क्या वह आतंकवादी हमला नहीं था? अमेरिका ईरान पर भयानक आक्रमण करता है. उसके परमाणु संयंत्रों को निशाना बनाता है.

क्या वह उग्रवादी गतिविधि नहीं है? इस आतंकी हमले के बाद वह डराकर युद्ध विराम भी कराता है. क्या यह सब आतंकवाद के उदाहरण नहीं माने जाने चाहिए? रूस और यूक्रेन के बीच तीन साल से भी अधिक समय से जंग चल रही है. यूक्रेन नाटो की गोद में बैठना चाहता है, क्योंकि उसे रूस से भय है कि कहीं रूस यूक्रेन पर कब्जा न कर ले.

उधर रूस नाटो सेना से भयभीत है कि कहीं वह यूक्रेन के रास्ते रूसी सीमा पर नहीं डट जाए. पाकिस्तान भारत का डर दिखाकर अपने नागरिकों को आतंकित करता है. वह बलूचिस्तान में जिस तरह अपने बलूच नागरिकों को मारता है, क्या वह आतंकवाद नहीं है?

बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तानी सेना पूर्वी पाकिस्तान में आतंक नहीं फैला रही थी? आज यही काम बांग्लादेश कर रहा है. उत्तर कोरिया अपने नागरिकों को दहशत में रखता है. कह सकते हैं कि अब सत्ताएं आतंक को संरक्षण देकर अपनी हुकूमत बचा रही हैं.  

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