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ब्लॉग: जनजातीय गौरव के प्रतीक ‘भगवान बिरसा’

By प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल | Updated: November 12, 2021 16:45 IST

गले में जनेऊ, हल्दी के रंग वाली पीली धोती, पैरों में खडांऊ पहनकर, प्रतिदिन माथे पर चंदन लगाने और तुलसी की पूजा करने वाले बिरसा मुंडा ने भगवान का स्थान प्राप्त किया.

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भगवान के रूप में पूज्य और धरती आबा के रूप में प्रसिद्ध बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को बांस की टट्टियों से बने एक ऐसे घर में हुआ था जिसमें मिट्टी का लेप भी न था और न ही बरसात को रोक सके, ऐसी सुरक्षित छत. चलहद के बालू और धूल में संगी साथियों के साथ खेलता- कूदता बालक एक मजबूत कद-काठी और आकर्षक सौंदर्य वाले लड़ाके के रूप में विकसित हुआ. 

1886 में चाईबासा के जर्मन ईसाई मिशन स्कूल में प्रवेश पाकर पढ़ाई करने वाला यह बालक मिशनरियों के द्वारा धर्म परिवर्तन और जमीन बेदखली के षड्यंत्न के विरूद्ध 1886-1887 में ही ईसाई मिशनरी के कटु आलोचक के रूप में ख्यात हो गया. इस प्रतिरोध का परिणाम यह हुआ कि 1990 में उसे चाईबासा छोड़ना पड़ा और विविध प्रकार के अनुभवों और संघर्षों के बीच कुछ ही दिनों में मुंडा जाति के लोगों के लिए त्रता और मसीहा के रूप में ख्याति प्राप्त कर गया. 

एक रोगहर, उपदेशक और चलहद के मसीहा के रूप में बिरसा मुंडा ने इस प्रकार की छवि प्राप्त की कि जनजातियां उन्हें अपने भगवान के रूप में देखने लगीं. सामाजिक सुधार, धार्मिक पुनर्जागरण के आंदोलन का यह मसीहा 1895 के अगस्त-सितंबर तक एक महान स्वतंत्रता सेनानी, ईसाईयत और मिशनरियों के षड्यंत्र का खंडन करता तथा अंतत: भारत की समृद्ध परंपरा बिरसाइत पंथ के संस्थापक के रूप में प्रसिद्ध हो गया. लोग उन्हें ‘धरती आबा’ अर्थात जगत पिता मानने लगे.

गले में जनेऊ, हल्दी के रंग वाली पीली धोती, पैरों में खडांऊ पहनकर, प्रतिदिन माथे पर चंदन लगाने और तुलसी की पूजा करने वाले धरती आबा ने भगवान का स्थान प्राप्त कर लिया. भगवान ने बाद में जनजातियों को ईसाईयत और ईसाई मिशनरियों से बाहर आने अर्थात अपवित्र या अधर्म को छोड़कर स्वधर्म को अपनाने के लिए प्रेरित किया. 

परिणाम हुआ कि ‘सिंहबोंगां की उपासना करने वालों की संख्या और सिंहबोंगा की उपासना में सभी बोंगाओं को (देवताओं को) समाहित करने वाली एकेश्वरवादी दृष्टि विकसित हुई. धीरे-धीरे यह एक राजनैतिक आंदोलन के रूप में परिवर्तित हुआ.

जल, जंगल, जमीन से जुड़ी जनजातीय परंपरा ही जनजातियों का स्वत्व और स्वधर्म है, इसकी भावना विकसित हुई. उसके बाद ब्रिटिश सरकार से सीधा संघर्ष प्रारंभ हुआ जो ब्रितानियों को डराने वाला था यह उनकी ही रिपोर्ट कहती है. सिंहभूमि क्षेत्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि चलकर से बिरसा नाम का मुंडा आदिवासियों को ईसाई धर्म छोड़कर हिंदू बनने के लिए प्रेरित कर रहा है.

उसने मांसाहार को प्रतिबंधित कर दिया और जनजाति समूह को ललकारते हुए घोषणा की कि अंग्रेजों के अधीन जंगलों को वह शीघ्र अपने अधीनता में ले लेगा. भगवान बिरसा मुंडा ने अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘‘जंगलों पर आदिवासियों का अधिकार है. हमने अत्याचार बहुत सह लिया लेकिन अब समय आ गया है कि ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाए. हमें मिलजुल कर जमींदारी और ब्रिटिश सरकार का सामना करना है. ’’ 

चलकर के युद्ध के समय सफेद पगड़ी और घुटनों तक धोती, हाथ में तलवार लिए बिरसा जनजातियों के उत्साह, जोश और पौरूष के प्रतीक के रूप में उभर कर सामने आए. तत्कालीन सुप्रिडेंटेंड पुलिस जी.एस. मियर्स की रिपोर्ट, जिसमें यह कहा गया है कि बिरसाओं का संबंध केवल धर्म संबंधी क्रियाकलापों तक सीमित नहीं था इसमें मुंडा सरदार आंदोलन का सहयोग भी सम्मिलित था. वे मिशनरी के विरोध की आड़ में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध विद्रोह कर रहे थे. 

गिरफ्तार बिरसा मुंडा के बारे में रिपोर्ट कहती है कि ‘‘यदि रिहाई हुई तो 1857 की क्रांति जैसी स्थिति पुन: प्रारंभ हो जाएगी’’ किंतु 1857 के नवंबर के महीने में उनकी रिहाई हुई और आंदोलन फिर जी उठा. सशस्त्र आंदोलन का उद्घोष हुआ और दिसंबर 1899 में सशस्त्र क्रांति प्रारंभ हो गई.

लंबे युद्ध के बाद फिर एक बार भेदियों और भीतरघातियों ने 500 रुपये पुरस्कार की लालच में बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करवा दिया और इस गिरफ्तारी में ही रहस्यमय तरीके से 30 मई 1900 को भगवान की यह लौकिक लीला पूरी हो गई, पर धरती आबा ने धरती, जंगल और जल को स्वधर्म, सुबोध से जोड़कर जो जागरण प्रस्तुत किया उसकी लौ आगे भी जलती रही. 

भारत के जनजातीय इतिहास में ब्रितानी हुकुमत के खिलाफ अधर्म और विधर्म के विरूद्ध भगवान बिरसा मुंडा का संघर्ष एक अमिट प्रेरणादायी और गौरवास्पद गाथा के रूप में आज भी देश के विविध जनजातीय समूहों में गाया जाता है.

आज जब जनजातीय अस्मिता को पहचानने उसे सुदृढ़ करने तथा अपने मूल से विस्थापित हो रहे जनजातियों को उनके गौरव से परिचित कराने का एक अभियान भारत सरकार ने प्रारंभ किया है तो इस स्वत्व, स्वबोध के महान अभियान का पुनस्र्मरण किया जाना भारत के लिए गौरव का क्षण है. 

आज अस्मिता के साथ विकास और सामाजिक संस्कार का प्रश्न महत्वपूर्ण है और इस महत्वपूर्ण प्रश्न के हल के लिए भगवान बिरसा मुंडा का आंदोलन भारत की सभी जनजातियों तथा समग्र भारत के लिए भी अत्यंत महत्व का है.

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