Assembly Elections 2024: धर्म वैयक्तिक आस्था की चीज है. उसका चुनावी-लाभ उठाने की किसी भी कोशिश को स्वीकार नहीं किया जा सकता, नहीं किया जाना चाहिए. विविधता में एकता वाला देश है हमारा. धार्मिक विविधता हमारी ताकत है, इसलिए धर्म को राजनीति का हथियार बनाना अपने संविधान की भावना के विरुद्ध काम करना है. यह अपने आप में एक अपराध है. इस अपराध की ‘सजा’ मतदाता ही दे सकता है. ऐसा कब होगा या हो पाएगा, पता नहीं. लेकिन होना चाहिए. जागरूक और विवेकशील मतदाता का दायित्व बनता है कि वह गलत तरीके से (पढ़िए आपराधिक तरीके से), की जाने वाली राजनीति को नकारे. बात सिर्फ सांप्रदायिक भावना को उभारने की ही नहीं है. चुनाव-प्रचार जिस तरह से घटिया होता जा रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है.
जनतंत्र में चुनाव विचारों की लड़ाई होता है. अपने विचार के समर्थन में तार्किक तरीके से प्रचार करने का सबको अधिकार है. लेकिन अधिकार का यह कैसा उपयोग है कि हम सहज शालीनता को भी भूल जाएं?हम अपनी स्वतंत्रता के ‘अमृत-काल’ में हैं. पता नहीं प्रधानमंत्री ने क्या सोचकर यह नाम रख दिया था, पर इसका अभिप्राय यही लगता है कि हम बताना चाहते हैं कि हमारा जनतंत्र परिपक्व हो चुका है.
इस परिपक्वता का तकाजा है कि हम छिछली राजनीति से स्वयं को बचाएं. विचारों की लड़ाई ठोस तर्कों से लड़ी जाती है, बेहूदा नारों से नहीं. चुनाव का अवसर राजनेताओं के लिए अपनी क्षमता को उजागर करने का होता है. यह दिखाने का अवसर होता है कि हम प्रतिपक्षी से बेहतर कैसे हैं. यह दावा करना पर्याप्त नहीं है कि मैं दूसरे से बेहतर हूं, बेहतरी को अपने व्यवहार से सिद्ध भी करना होता है.
दुर्भाग्य ही है कि हमारे नेता, चाहे वे किसी भी रंग के क्यों न हों, न इस बात को समझते हैं और न ही समझना चाहते हैं. चुनाव-प्रचार के दौरान जिस तरह भाषा और नारेबाजी लगातार घटिया होती हम देख रहे हैं वह हमारी जनतांत्रिक समझ पर सवालिया निशान ही लगाता है. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा नहीं है कि पहले हमारी राजनीति का स्तर बहुत अच्छा था, पर इतना घटिया निश्चित रूप से नहीं था.
धर्म के आधार पर राजनीति पहले भी होती थी, पर वैसी नहीं जैसी अब हो रही है. भगवे या हरे या नीले या सफेद रंग ने हमारी राजनीति को बदरंग बना दिया है. नेता यह बात नहीं समझना चाहते, पर मतदाता को इसे समझना होगा–दांव पर उसका भविष्य लगा है!