अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: बालासाहब के सपने, उद्धव के लिए चुनौती
By अमिताभ श्रीवास्तव | Updated: November 28, 2019 13:59 IST2019-11-28T13:59:14+5:302019-11-28T13:59:14+5:30
चुनाव बाद गठबंधन में स्थिति पक्ष में न होने से शिवसेना को बगावती तेवरों को अपनाना पड़ा और अब सत्ता की बागडोर उसके हाथ में है

अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: बालासाहब के सपने, उद्धव के लिए चुनौती
शिवसेना पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे चाहते-ना-चाहते हुए भी आखिरकार मुख्यमंत्री नियुक्त हो गए हैं. उन्होंने पार्टी के लिए राज्य का शीर्ष राजनीतिक पद पाकर ही दम लिया. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद से शिवसेना की यह हठ थी और जिसे पाने में उसे सफलता भी मिली. यूं देखा जाए तो बीते चुनावी परिदृश्य में शिवसेना ने अपना मुख्यमंत्री बनाने का लक्ष्य लेकर चुनाव लड़ा था.
चुनाव बाद गठबंधन में स्थिति पक्ष में न होने से उसे बगावती तेवरों को अपनाना पड़ा और अब सत्ता की बागडोर उसके हाथ में है. वहीं दूसरी ओर सालों-साल से किए जा रहे उसके अनेक वादे सभी की स्मृतियों में हैं. कुछ हद तक इन उम्मीदों में स्वर्गीय बालासाहब ठाकरे के सपने भी हैं, लेकिन अपने दोनों हाथों को दूसरों को सौंपकर उद्धव ठाकरे कितने कदम चल पाएंगे, इस पर सवाल उठना लाजिमी है.
समस्त तर्कों के साथ 53 साल पुरानी शिवसेना की असली पहचान बालासाहब ठाकरे ही हैं, जिन्हें महाराष्ट्र में हमेशा ‘किंग मेकर’ के रूप में ही देखा गया. खुद की पार्टी की बात हो या फिर दूसरे दलों की जरूरत, बालासाहब की बात हमेशा वजन रखती रही. आपातकाल में भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का समर्थन, उद्योग समूहों के संकटों का निवारण, दुर्घटना के बाद महानायक अमिताभ बच्चन की सहायता, अभिनेता संजय दत्त की रिहाई, पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के चुनाव से लेकर वर्ष 1995 में शिवसेना-भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकार का गठन बालासाहब की अहम भूमिका से ही संभव हुआ.
उन्होंने अपनी विचारधारा और निर्णयों में व्यक्ति-दल से परे काम करने में विश्वास किया. यही वजह रही कि हर क्षेत्र में उनका नाम अदब से लिया गया. वहीं दूसरी तरफ हर विषय पर उनके विचार आक्रामक रहे, चाहे वह अयोध्या में विवादित ढांचा गिराया जाना, मुंबई में बम धमाका और दंगे, सोनिया गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना, राज ठाकरे का शिवसेना छोड़ना, छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रति अटूट आस्था और समर्पण, मराठी मानुष के साथ प्रेम, दूसरे राज्यों के लोगों के साथ दलित और मुस्लिमों के प्रति बेलाग बयानबाजी हो, इन्हीं बातों ने महाराष्ट्र में उन्हें सबके आकर्षण का केंद्र बनाया.
उनकी हर आवाज - हर पुकार ने लोगों को उनका दीवाना बनाया. हालांकि उन्होंने अपनी सोच को चुनावी सफलताओं से जोड़कर कभी नहीं देखा. यही वजह है कि आज भी शिवसेना की चुनावी सफलता बालासाहब की लोकप्रियता के मुकाबले बहुत कम है. इस सब के बीच उनके पुत्र और पार्टी के उत्तराधिकारी सत्ता की बागडोर संभालने का एलान कर चुके हैं. वह बालासाहब की इच्छा और पार्टी के रास्ते गद्दी पर बैठे. इसलिए यदि बालासाहब की मर्जी उनके साथ है, तो शिवसेना और उसे चाहने वालों की उम्मीदें भी उसके साथ ही हैं. यहीं से उनके लिए चुनौतियों का अंबार लगना शुरू होता है.
कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) व शिवसेना के गठबंधन का नेता चुने जाने के बाद उद्धव ठाकरे ने भले ही यह एलान किया हो कि वह सबको साथ लेकर चलेंगे और किसी के साथ कोई द्वेष नहीं रखेंगे. मगर उन पर भरोसा रखने वाले अपनी हर उम्मीदों पर उन्हें आशा की नजरों से देखेंगे. विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उन्होंने 24 नवंबर को अयोध्या जाने की घोषणा की थी, जो अब ठंडे बस्ते में चली गई है. अगले माह छह दिसंबर यानी अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने का दिन अलग-अलग विचारधारा के साथ मनाया जाएगा. शिवसेना हर साल उसमें हिंदू नजरिए के साथ हिस्सा लेती रही है.
इसी दिन डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का महापरिनिर्वाण दिवस मनाया जाएगा. शिवसेना मराठवाड़ा में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के नामांतरण के लिए किए गए आंदोलन का विरोध करती रही है. उसका संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से वर्तमान तक गुजराती समाज के प्रति सकारात्मक नजरिया नहीं रहा. दक्षिण और उत्तर भारतीयों के विरुद्ध आंदोलन तो जगजाहिर हैं. कुछ हद तक यही रुख उसे राज्य ही नहीं, बल्कि देश में अलग पहचान दिलाता है. उसने मराठी समाज में जातिगत समीकरणों को साधते हुए ब्राह्मणों के साथ पिछड़े और उपेक्षित वर्ग को प्रमुखता देना अपनी नीति बनाया तथा हर तबके के लोगों को शीर्ष पर पहुंचाया. लिहाजा पहली बार सत्ता के शिखर पर पहुंच कर अपेक्षाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
बार-बार बालासाहब के पदचिह्नों पर चलने का दावा करने वाले उद्धव ठाकरे अब सत्ता की चौखट पर अपनी पार्टी के समर्थकों के सवालों के जवाब देने से इनकार नहीं कर सकते हैं. वह भी उस दौर में, जब उन्होंने पार्टी और खुद को इतना बदल दिया है कि वह अपने घोर विरोधियों के खेमे में जा बैठे हैं. एकतरफा राज की राजनीति में विश्वास करने वाली पार्टी एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर काम करने के लिए तैयार हो चुकी है. वह अपने विरोधियों की शर्तों को भी मान ही नहीं बैठी है, बल्कि धन्यवाद देने में भी चूक नहीं रही है.
वह यह मान रही है कि मुख्यमंत्री के साथ शिवसेना के नेतृत्व में सरकार बनने जा रही है, जबकि वास्तविकता यह है कि महा विकास मोर्चे के नाम से तीन दलों के गठबंधन की सरकार बन रही है, जिसका नेता शिवसेना का है. ऐसे में बालासाहब के सपनों को साकार करना बड़ी टेढ़ी खीर है. मगर शिवसेना समर्थकों का अपेक्षा रखना भी अनुचित नहीं है, क्योंकि सालों-साल सत्ता मिलने पर राज्य को बदलने का दावा उन्होंने ही किया है.
यह एक असमंजस भरी स्थिति है, जिसमें दूसरों के कहने पर शिवसेना पार्टी प्रमुख मुख्यमंत्री तो बन गए हैं, लेकिन सत्ता सुख को कितना खुद और कितना दूसरों को महसूस करा पाएंगे, इस पर हमेशा ही बड़ा सवाल बना रहेगा.
फिलहाल खुशी सिर्फ इतनी है कि मुख्यमंत्री शिवसेना का बना है और शिवराज्य का सपना बालासाहब ने देखा था. सारे सपने सच होते हैं, शायद ऐसा भी तो होता नहीं.