आलोक मेहता का ब्लॉग: स्वास्थ्य और शिक्षा को सर्वोच्च स्थान क्यों नहीं?

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: January 5, 2020 04:58 IST2020-01-05T04:58:41+5:302020-01-05T04:58:41+5:30

राजस्थान के एक अस्पताल में केवल एक महीने में सौ से अधिक बच्चों की मृत्यु का हृदय विदारक समाचार जानकर यही सवाल उठता है कि सरकारें, संसद, विधानसभाएं और न्यायालय भी स्वास्थ्य-चिकित्सा सुविधाओं को सर्वोच्च राजनीतिक, सामाजिक और न्यायिक प्राथमिकता क्यों नहीं बना रहे हैं?

Alok Mehta blog: Why is health and education not at the highest place? | आलोक मेहता का ब्लॉग: स्वास्थ्य और शिक्षा को सर्वोच्च स्थान क्यों नहीं?

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

बचपन में हमें बताया जाता रहा कि डॉक्टर भगवान का रूप होते हैं. उनके इंजेक्शन से भी डरना नहीं है. इसी तरह शिक्षकों की महिमा रही है. फिर भी यह देख, सुन, पढ़ कर दु:ख होता है कि अपने देश में अब तक स्वास्थ्य और शिक्षा के मंदिरों की दशा प्राचीन मंदिरों से भी खराब हालत में है. राजस्थान के एक अस्पताल में केवल एक महीने में सौ से अधिक बच्चों की मृत्यु का हृदय विदारक समाचार जानकर यही सवाल उठता है कि सरकारें, संसद, विधानसभाएं और न्यायालय भी स्वास्थ्य-चिकित्सा सुविधाओं को सर्वोच्च राजनीतिक, सामाजिक और न्यायिक प्राथमिकता क्यों नहीं बना रहे हैं? उपासना स्थलों का जीर्णोद्धार, महापुरुषों के स्मृति गृह-मूर्ति स्थापना इत्यादि के लिए अभियान-धन संग्रह या बजट का प्रावधान हो सकता है तो जीवन रक्षा केंद्रों को अभाव-अव्यवस्था से निजात दिलाने के लिए सर्वानुमति बनाने में कैसे कठिनाई हो सकती है. राजस्थान के कोटा में बच्चों की मृत्यु पर भाजपा-कांग्रेस के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी दु:खद है.

कोटा प्रदेश का विकसित और सुविधा संपन्न शहर माना जाता है. कोचिंग संस्थानों से ही करोड़ों की आमदनी होती है. उद्योग धंधों के अलावा परमाणु ऊर्जा तक का केंद्र रहा है. वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष बिड़ला इसी कोटा बूंदी निर्वाचन क्षेत्न से चुनकर आए हैं. यों किसी समय वर्तमान मुख्यमंत्नी अशोक गहलोत के समर्थन से देश के प्रधानमंत्नी रहे नरसिंह राव के निकटस्थ और उनके ही मंत्नालय के सहयोगी भुवनेश चतुर्वेदी कोटा के ही थे. गहलोत या भाजपा मुख्यमंत्नी वसुंधरा राजे के नजदीकी वरिष्ठ नेता इसी क्षेत्न का प्रतिनिधित्व करते रहे. इसके बावजूद पैसा कमाने वाले संस्थान फलते-फूलते रहे और आज बच्चों के अस्पताल में कड़कड़ाती सर्दी की हवा रोकने के लिए शीशे नहीं हैं, 44 वेंटिलेटर और 1430  वार्मर तक खराब हैं, दवाई-उपकरण की कमी के साथ डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मियों की भी कमी है. इस समय यह खबर चर्चा में आ गई, लेकिन गर्मी या बरसात में भी नवजात शिशुओं के मरने के तथ्य सामने ही नहीं आते होंगे.

यह समस्या एक शहर या प्रदेश की नहीं है. राजधानी दिल्ली के एम्स सहित कई सरकारी अस्पतालों में दवाई - उपकरणों की कमी है और घोटालों के कारण यदाकदा कार्रवाई भी जारी है. डॉक्टर सुशीला नायर से सुषमा स्वराज और अब हर्षवर्धन तक की संवेदनशीलता या इरादों पर कोई संदेह नहीं हो सकता और न ही अधिकांश डॉक्टरों की क्षमता योग्यता पर प्रश्न लग सकता हैै लेकिन जीडीपी का केवल एक प्रतिशत बजट स्वास्थ्य-चिकित्सा के लिए होगा तो वे अस्पतालों को साधन कहां से दिला सकेंगे. एक संवैधानिक पेंच भी है. संघीय ढांचे में स्वास्थ्य और शिक्षा, कानून व्यवस्था के क्षेत्न राज्य सरकारों के अधीन हैं. इसके लिए केंद्र से सहयोग मात्न मिलता है, लेकिन केंद्र का हस्तक्षेप नहीं होता. कुछ राज्यों ने अपनी व्यवस्था में सुधार भी किया है और कई योजनाएं लागू हुई हैं, लेकिन समस्या को लेकर एक-दूसरे पर दोष या जिम्मेदारी डाल दी जाती है.

हाल के वर्षो में केंद्र और राज्यों के सत्तारूढ़ दल भिन्न होने पर ऐसे अधिकारों को लेकर भी टकराव का नुकसान जनता ङोल रही है. पराकाष्ठा मोदी सरकार की आयुष्मान स्वास्थ्य बीमा योजना है, जिसमें पांच लाख तक की मुफ्त चिकित्सा दस करोड़ से अधिक लोगों को मिलनी है. इसे विश्व की सबसे बड़ी सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजना कहा जा सकता है. लेकिन गरीब प्रदेश पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्नी ममता बनर्जी से लेकर दिल्ली के अरविंद केजरीवाल तक इस योजना को लागू करने को तैयार नहीं हैं. सरकारें आती जाती रहती हैं और गरीब आदमी को राजनीति से नहीं, जीने और परिवार की जिंदगी से मतलब होता है.

मुद्दा यह भी होना चाहिए कि अमेरिका सहित कई देशों में संघीय व्यवस्था होने पर भी पूरे देश में शिक्षा और स्वास्थ्य की नीतियां और सरकारी सुविधाएं समान हैं. मुङो याद है लगभग बीस वर्ष पहले चुनाव के दौरान  लंदन में एक नेता ने बातचीत में बताया था कि उनके क्षेत्न में अस्पताल सबसे बड़ा मुद्दा है. और अभी हुए चुनाव में भी रोजगार से बड़ा मुद्दा स्वास्थ्य का रहा है, क्योंकि यूरोपियन के साथ रहने से ब्रिटिश लोगों को अपनी चिकित्सा सुविधाओं का हिस्स्सा देना पड़ता है. इस दृष्टि से राजनीतिक और सामाजिक संगठनों को अन्य क्रांतिकारी संवैधानिक संशोधनों के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्न में राष्ट्रीय एकरूपता लाने वाले कानून के प्रावधान पर सार्थक चर्चा के बाद निर्णय करना चाहिए. नए वित्तीय वर्ष का बजट भी बन रहा है, क्यों नहीं सभी दल और संस्थाएं स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक धनराशि के प्रावधान पर सहमति बनवाएं. लाभ तो सभी राज्यों को मिलेगा. इसी तरह केंद्र में कांग्रेस राज में सचिन पायलट ने मंत्नी के रूप में (अब राजस्थान के उपमुख्यमंत्नी) कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के तहत दस प्रतिशत के अनिवार्य खर्च का कानून बनवाया था.

हाल के वर्षो में प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी भी इसी मद में अधिक सहयोग का आग्रह करते रहे हैं. गुजरात की तर्ज पर अधिकतर प्रदेश इन्वेस्टर्स मीट करने लगे हैं. उद्योग के लिए जमीन, बिजली, पानी, कर्ज देते समय ही बड़े औद्योगिक संस्थानों से स्वास्थ्य शिक्षा के लिए एक हिस्सा क्यों नहीं मांगा जा सकता है? अनुबंधों की एक शर्त यह भी हो सकती है. अच्छी शिक्षा और स्वस्थ कर्मचारियों के बिना कोई उद्योग-धंधा सफल और मुनाफेदार कैसे होगा? शिक्षित और स्वस्थ समाज से ही लोकतंत्न भी सही मायने में सशक्त और सफल होगा.

Web Title: Alok Mehta blog: Why is health and education not at the highest place?

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