कृषि संकट: बजट में होगा कुछ समाधान ? 

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: January 31, 2025 06:44 IST2025-01-31T06:43:31+5:302025-01-31T06:44:25+5:30

अब वे नाराज हैं और बकाया भुगतान होने तक गेहूं आदि का भंडारण करने से इनकार कर रहे हैं. लेकिन सरकार के पास न तो पैसा है और न ही कोई जवाब.

Agricultural crisis Will there be some solution in the budget 2025 | कृषि संकट: बजट में होगा कुछ समाधान ? 

कृषि संकट: बजट में होगा कुछ समाधान ? 

अभिलाष खांडेकर

बजट आते हैं और जाते हैं. यह एक ऐसी दस्तूर बन गया है जिसे लोग पिछले सात दशकों से देखते आ रहे हैं.
कुछ लोगों के लिए बजट खुशियां लेकर आता है तो कुछ के लिए निराशा. ऐसी भी एक धारणा है कि साक्षर समाज के 70-80 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग इस वार्षिक वित्तीय प्रक्रिया की बारीकियों को नहीं समझते. बजट दस्तावेज के बारीक अक्षरों को समझना आसान नहीं है, हालांकि इसकी विषय-वस्तु प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हर व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती है.

मैं यह नहीं कहता कि वित्त मंत्रालय का वार्षिक बजट बनाने का काम पूरी तरह से निरर्थक-सा है. शक्तिशाली वित्त मंत्री और उनके मंत्रालय के कई विभाग राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं... कई विद्वान लोग, अर्थशास्त्री और उद्योग विशेषज्ञ ऐसा मानते हैं. वित्त मंत्री द्वारा अलग-अलग विभागों को बजट आवंटित किया जाता है जो फिर ‘जनकल्याण’ की अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाते हैं. लेकिन संघर्षरत किसान, उपेक्षित आदिवासी, बेरोजगार युवा बजट से क्या हासिल करते है, यह कोई नहीं जानता. क्या वित्त मंत्री को वाकई वोटों से परे उनकी चिंता होती है? अगर बजट वाक़ई इतने उपयोगी और कल्याणकारी होते तो शायद किसानों को सरकारों से झगड़ना नहीं पड़ता. शायद महंगाई पर लगाम लग जाती. शायद बेरोजगार युवाओं की संख्या कम होती और शायद लाड़ली बहना तथा अन्य लोकलुभावन योजनाओं की जरूरत ही नहीं पड़ती.

कृषि और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर मेरे हालिया लेख के बाद, कई मित्रों ने लिखा कि ऐसे कई और बिंदु हैं जिन्हें मैंने नहीं छुआ है. मैं उनसे सहमत था क्योंकि मैं कृषि विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन मैंने पिछले अनेक वर्षों में किसानों की अंतहीन दुर्दशा देखी है.

समझदार मित्रों द्वारा उठाए गए कुछ बिंदुओं में सुझाव दिया गया कि आगामी बजट में कृषि क्षेत्र में वास्तविक वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए धन बढ़ाया जाना चाहिए. कुछ लोगों ने इस तथ्य की ओर इशारा किया कि कृषि से संबंधित प्रत्येक गतिविधि पर सरकार का अत्यधिक नियंत्रण है- बुवाई, बीज-उत्पादन, उर्वरक आपूर्ति, भंडारण सुविधाओं से लेकर विपणन और खाद्य प्रसंस्करण तक. इससे भ्रष्टाचार और अन्य कुप्रथाओं को बढ़ावा मिलता है, जिससे किसान अंतहीन रूप से पीड़ित होते हैं.

गेहूं, धान और सोयाबीन जैसी चुनिंदा फसलों को खरीदने की सरकारी नीतियों ने ज्यादातर किसानों को सिर्फ यही फसलें उगाने पर मजबूर कर दिया है. बीज उत्पादक सुधीर सोनी का मानना है कि गुजरात की तरह बहु-फसल खेती को दूसरे राज्यों को भी अपनाना चाहिए.

सब्जी की खेती एक ऐसा क्षेत्र है जो हर समय कीमतों में उतार-चढ़ाव के कारण अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है. इसलिए लाखों उपभोक्ताओं की इस दैनिक जरूरत को पूरा करने की ओर बहुत कम किसान आकर्षित होते हैं.
एक पूर्व कृषि स्नातक और जैविक खेती के अनुभवी व्यक्ति का मानना है कि खुद कृषि विभाग संकट में फंसे किसानों की कोई मदद नहीं कर रहा है. वह किसानों का सच्चा मित्र होने के बजाय दुश्मन बन गया है. अगर यह सच है तो सरकार को जमीनी हकीकत की जांच करनी चाहिए.

जब मैं यह लिख रहा था, मैंने सुना कि दलहन के बाजार में भी गिरावट आ गई है. बाजार में अचानक आई मंदी ने दालों के भाव को बुरी तरह प्रभावित किया है.

देश भर में कृषि योग्य भूमि हर साल क्षरण, डायवर्शन और मरुस्थलीकरण के कारण कम होती जा रही है. पंजाब, पश्चिम बंगाल, केरल और उत्तर प्रदेश में उपलब्ध कृषि योग्य भूमि में लगातार गिरावट के आंकड़े भयावह हैं और एक खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इंगित करते हैं.

जनसंख्या विस्फोट के कारण खाद्यान्न की मांग और आवास की आवश्यकता बढ़ रही है. आवास परियोजनाएं कृषि भूमि को खा रही हैं. शहरी भूमि की कीमतें आसमान छू रही हैं, क्योंकि कई किसान अपनी जमीनें एकड़ में बेच रहे हैं और शहरों में ऊंची कीमतों पर छोटे-छोटे भूखंड खरीद रहे हैं. मध्य प्रदेश जैसा राज्य, जिसने गेहूं उत्पादन और अन्य ‘प्रगतिशील’ कृषि पद्धतियों के लिए कई ‘कृषि-कर्मण पुरस्कार’ जीते हैं, दो साल से राज्य में हजारों कोल्ड स्टोरेज और गोदामों का किराया नहीं दे पा रहा है. निवेशकों ने बड़े कोल्ड स्टोरेज और गोदाम बनाने के लिए इस उम्मीद में कर्ज लिया कि वे अनाज का भंडारण करेंगे. अब वे नाराज हैं और बकाया भुगतान होने तक गेहूं आदि का भंडारण करने से इनकार कर रहे हैं. लेकिन सरकार के पास न तो पैसा है और न ही कोई जवाब. अधिकांश पैसा लाड़ली बहनों को जो जा रहा है. राज्य ऐसी वोट-कबाडू योजनाओं के लिए कर्ज पर कर्ज ले रहे हैं

नदियों में प्रदूषण और प्रमुख नदी घाटियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण जल संकट गहराता जा रहा है.

ऐसे परिदृश्य में उम्मीद है कि निर्मला सीतारमण भविष्य को ध्यान में रखते हुए सुदूर क्षेत्र के विभिन्न मुद्दों पर ईमानदारी से बात करेंगी. किसानों की परेशानी सिर्फ उनकी आत्महत्या तक सीमित नहीं है, बल्कि आम आदमी को भी प्रभावित कर रही है, जो अपनी थाली में गुणवत्तापूर्ण भोजन चाहता है.

Web Title: Agricultural crisis Will there be some solution in the budget 2025

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