अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: चौतरफा संकट लेकिन अभिव्यक्ति का अभाव

By अभय कुमार दुबे | Updated: July 30, 2020 05:11 IST2020-07-30T05:11:12+5:302020-07-30T05:11:12+5:30

Abhay Kumar Dubey's blog on coronavirus lockdown | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: चौतरफा संकट लेकिन अभिव्यक्ति का अभाव

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: चौतरफा संकट लेकिन अभिव्यक्ति का अभाव

Highlightsबैंकों से कर्ज लेने वालों की संख्या में भारी गिरावट होना तय है. बैंकों से कर्ज लेने वालों की संख्या में भारी गिरावट होना तय है.

कोरोना से लड़ने के लिए भारत में दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे कड़ा लॉकडाउन किया गया. लेकिन इसके बावजूद इस देश में कोरोना महामारी नियंत्रित होने के बजाय विश्व के किसी भी देश के मुकाबले तेज रफ्तार से अपने पांव पसारती चली जा रही है. जिसे महामारी का शिखर कहते हैं, वह दिल्ली और केरल को छोड़ कर इस विशाल देश के किसी प्रांत में दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है. इसके कारण हमारी पहले से ही जर्जर स्वास्थ्य-प्रणाली, क्षयग्रस्त शिक्षा-व्यवस्था और नवीकरण की लंबी प्रतीक्षा में भुरभुरे पड़ चुके नागरिक प्रशासन की सींवनें बाहर निकल आई हैं. विभिन्न कारणों से टिकी हुई दीर्घकालीन मंदी की हदों से भी नीचे गिर कर चौतरफा पस्ती (नकारात्मक वृद्धि) का सामना कर रही अर्थव्यवस्था लगभग मृतप्राय स्थिति में पहुंच गई है. चाहे उद्योग का क्षेत्र हो, कृषि हो या सेवा-क्षेत्र; निवेश, उत्पादन, आमदनी और उपभोग का चक्र एक इंच आगे नहीं खिसक पा रहा है. यह आर्थिक संकट परिस्थितिजन्य न होकर प्रणालीगत है.

इसका सबसे बड़ा प्रमाण है पिछले बीस साल से बैंकिंग प्रणाली में लगा हुआ बट्टेखाते में डाले जाने वाले कर्जों (एनपीए) का वह घुन जिसने उस बंदोबस्त को भीतर से पूरी तरह खोखला कर दिया है, जिसे अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है. जुलाई के आखिरी दिनों में जारी रिजर्व बैंक की अर्धवार्षिक वित्तीय स्थिरता रपट ने बिना किसी लाग-लपेट के बताया है कि एनपीए का ग्राफ पिछले 31 मार्च, 2000 के बाद सबसे ऊंचा होने वाला है. बैंकों से कर्ज लेने वालों की संख्या में भारी गिरावट होना तय है. बैंकों की परिसंपत्तियों की गुणवत्ता में भयानक क्षय हो रहा है. आम जनता की गाढ़ी कमाई बैंकों में अब पहले की तरह सुरक्षित नहीं रह गई है.

रिजर्व बैंक ने आपत्ति दर्ज कराते हुए यह भी कहा है कि स्टॉक एक्सचेंज में आने वाला उछाल अर्थव्यवस्था की वास्तविक हुलिया की नुमाइंदगी न करके भ्रामक तस्वीर पेश करता है. इसके परिणाम बेहद नुकसानदेह निकल सकते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि वित्तीय प्रणाली की क्वालिटी में आई गिरावट की जिम्मेदार केवल मौजूदा सरकार नहीं है. उससे पहले दस साल चली कांग्रेस सरकार ने एनपीए की समस्या को न केवल जन्म दिया था, बल्कि उसे बिगाड़ा भी था. लेकिन मौजूदा सरकार भी अब छह साल पूरे कर चुकी है. रिजर्व बैंक की रपट जिन विफलताओं पर उंगली रखती है, उसकी जिम्मेदारी से आज की सरकार सत्ताच्युत हो चुके हुक्मरानों के दरवाजे पर ठीकरा फोड़ कर नहीं बच सकती.

संकट का दूसरा पहलू विदेश और रक्षा नीति से संबंधित है. पिछले कुछ दशकों का सिंहावलोकन करने पर याद नहीं आता कि भारत के अपने पड़ोसी देशों से इतने खराब संबंध कभी रहे होंगे. ऊपर से हुआ यह है कि पहले डोकलाम में और फिर पूर्वी लद्दाख में चीन द्वारा किया गया अतिक्रमण एक ऐसी चट्टान में बदल चुका है, जिसके नीचे भारत का हाथ बुरी तरह से दब गया है. अब इसे बहुत धीरे-धीरे धैर्य और कुशलता के साथ इंच-इंच करके ही निकाला जा सकता है. वक्त खाने वाली इस प्रक्रिया में हमें कुछ न कुछ नुकसान झेलना ही होगा. राष्ट्रीय स्वाभिमान पर हो रहे इस आघात की जिम्मेदारी एक हद तक एशियाई महाशक्ति बनने की भारतीय महत्वाकांक्षा पर डाली जा सकती है. पिछले कुछ दशकों से भारत आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर बिना पर्याप्त शक्ति अर्जित किए ही छोटे देशों को अपने रुतबे में लेने की जो कोशिश करता रहा है, उसी का यह संचित दुष्परिणाम है. चीन के साथ ‘एशियाई सेंचुरी’ का नेतृत्व करने की दावेदारियों का दम घुट चुका है.

संकट की इन अभिव्यक्तियों में अगर राजस्थान के नाटक और विकास दुबे कांड से रेखांकित हुई पुलिस की नाकामी भी जोड़ ली जाए तो साफ दिखने लगता है कि भारतीय लोकतंत्र के संस्थागत बंदोबस्त का हुलिया हर कोण से बिगड़ा हुआ है. पुलिस, नागरिक प्रशासन, स्वास्थ्य, शिक्षा, न्यायपालिका, विधायिका और चुनाव से संबंधित प्रणालियां और संरचनाएं अपनी अपेक्षित जिम्मेदारियों को निभाने के बजाय एक से बढ़ कर एक विकृतियां परोस रही हैं. इस परिस्थिति का एक प्रकट विरोधाभास भी है. व्यवस्था इतनी संकटग्रस्त है, लेकिन उसकी अभिव्यक्तियां राजनीति के दायरे में तकरीबन न के बराबर हैं. सरकार मजबूत है. उसके खिलाफ कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं है और न ही उसकी कोई तैयारी दिख रही है. विपक्ष के पास अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारियां निभाने के लिए न तो कोई तात्कालिक योजना है और न ही भविष्य की कोई कल्पनाशीलता.

भारत का कॉर्पोरेट अभिजन, प्रशासनिक प्रभुवर्ग और बौद्धिक एलीट वर्ग मौजूदा सत्ताधारियों और उनके शीर्ष नेतृत्व में कुछ ऐसी खूबियां देख रहा है, जो उसे अन्यत्र दुर्लभ प्रतीत होती हैं. यह अलग बात है कि वे खूबियां अभी तक ठीक से परिभाषित नहीं की गई हैं. जो राष्ट्रीय सहमति कभी नेहरू और उनके बाद इंदिरा गांधी के इर्द-गिर्द बनी थी, वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शख्सियत के आसपास बन गई है. इसीलिए विपक्ष की वर्तमान हालत के मद्देनजर इन अभिजनों को लगता है कि मौजूदा सत्ताधारियों के नीचे की जमीन यदि खिसकी तो एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हो जाएगा. अगर इन दोनों अनुमानों में यथार्थ का एक अंश है, तो हमें उस क्षण का इंतजार करना होगा जब भारत का शीर्ष अभिजन मौजूदा नेतृत्व पर इस संकट की जिम्मेदारी डालना शुरू करेगा. उसके बाद जो राजनीतिक गोलबंदी होगी, वह शायद हमें नौ साल पहले शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की याद दिला दे.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog on coronavirus lockdown

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