अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: एक तरफ आंदोलन, दूसरी तरफ परेशान बाजार

By अभय कुमार दुबे | Updated: January 15, 2020 09:34 IST2020-01-15T09:34:44+5:302020-01-15T09:34:44+5:30

अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने हाल ही में कार्ल पोलान्यी के हवाले से याद दिलाया है कि अर्थव्यवस्था का रिश्ता केवल मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों से ही नहीं होता, बल्कि उसकी जड़ें समाज, संस्थाओं और राजनीति में निहित होती हैं.

Abhay Kumar Dubey's blog: Movement on one side, troubled market on the other side | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: एक तरफ आंदोलन, दूसरी तरफ परेशान बाजार

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: एक तरफ आंदोलन, दूसरी तरफ परेशान बाजार

आज का सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या देश भर में नए नागरिकता कानून के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बेचैन कर देने वाले घटनाक्रम का कोई ताल्लुक हमारी अर्थव्यवस्था के संकट से है? अगर दोनों के बीच कोई ताल्लुक नहीं है तो भारतीय मध्यवर्ग के एक हिस्से का यह आंदोलनकारी मूड बहुत दिन तक नहीं टिक पाएगा. अगर कोई ताल्लुक है तो राजनीतिक उथल-पुथल की यह स्थिति लंबी खिंचने वाली है. इसी के साथ जुड़ा सवाल यह है कि पूर्ण बहुमत और मजबूत नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के होने के बावजूद क्या इस परिस्थिति को राजनीतिक अस्थिरता की शुरुआत माना जा सकता है? चुनावी लोकतंत्र पर अक्सर बहुमत के दम पर जमी हुई सरकार को राजनीतिक स्थिरता का पर्याय समझने की गलतफहमी हावी रहती है. यह तथ्य आसानी से भुला दिया जाता है कि 1984 में चुनी गई राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार से ज्यादा बड़ा बहुमत पिछले चालीस साल में किसी के पास नहीं रहा, लेकिन वह भारतीय लोकतंत्र के लिए सर्वाधिक राजनीतिक अस्थिरता की अवधि थी. उससे पहले 1974 में इंदिरा गांधी की सरकार भी पूर्ण बहुमत की सरकार थी, लेकिन उसके खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक बड़ा राष्ट्रीय आंदोलन चला था.

तकरीबन ऐसी ही अंतर्वरिोधी हालत इस समय है. जिस देश के विश्वविद्यालय राजनीतिक असंतोष से खदबदा रहे हों, जहां मध्यवर्गीय पेशेवर लोगों का एक हिस्सा दफ्तरों में वक्त गुजारने के बजाय सड़कों पर उतरने के लिए मचल रहा हो, जहां राजधानी के पुलिस मुख्यालय के सामने रात-रात भर धरने दिए जा रहे हों (जिनमें एक धरना स्वयं पुलिस कर्मचारियों ने दिया हो), जहां आम तौर पर गैर-राजनीतिक रवैया अख्तियार करने वाले फिल्म कलाकारों का तीखा राजनीतिक ध्रुवीकरण हो गया हो, और जहां राज्य सरकारें संसद द्वारा बनाए गए कानून को मानने से इंकार कर रही हों (जिनमें एक राज्य सरकार केंद्र में सत्तारूढ़ दल की भी हो); ऐसे देश की अर्थव्यवस्था बड़े पैमाने का निवेश आकर्षित करने में विफल रहती है. आíथक वृद्धि अपने घटित होने के लिए एक बेचैन और क्षुब्ध समाज की नहीं, बल्कि शांत और स्थिर समाज की मांग करती है. और, ऐसा समाज इस समय मुख्य तौर पर सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा अपनाई जा रही नीतियों के सामाजिक फलितार्थो के कारण उपलब्ध नहीं है. परिस्थिति गंभीर इसलिए भी है कि यह राजनीतिक-सामाजिक बेचैनी आर्थिक संकट के कारण पैदा हो सकने वाले असंतोष की भूमिका के बिना ही दिख रही है. उस समय क्या होगा जब यह क्षोभकारी राजनीतिक परिस्थिति अत्यंत कठिन होती जा रही आर्थिक परिस्थिति के साथ जुड़ जाएगी?  

अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने हाल ही में कार्ल पोलान्यी के हवाले से याद दिलाया है कि अर्थव्यवस्था का रिश्ता केवल मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों से ही नहीं होता, बल्कि उसकी जड़ें समाज, संस्थाओं और राजनीति में निहित होती हैं. अर्थशास्त्रियों की दुनिया में पोलान्यी को एक ऐसे आर्थिक इतिहासकार के रूप में जाना जाता है जिसने समाज और आर्थिकी के बीच बुनियादी संबंधों का अंतर्दृष्टिपूर्ण उद्घाटन किया था. पोलान्यी के जरिये कौशिक बसु कहना यह चाहते थे कि विभिन्न सरकारी नीतियों के कारण अगर भारत की सड़कों पर इसी तरह राजनीतिक असंतोष उफनता रहा, अगर संस्थाओं के लोकतांत्रिक किरदार से छेड़छाड़ की जाती रही और अगर इसी तरह कुछ समुदायों को उनकी राजनीतिक जमीन से बेदखल करने के प्रयास होते रहे, तो हमारा सार्वजनिक जीवन शांति, सौहाद्र्र और भरोसे की कमी का शिकार हो जाएगा. इसका सीधा असर आर्थिक माहौल पर पड़ेगा. न केवल मौजूदा आर्थिक संकट के सुलझने की संभावनाएं कमजोर हो जाएंगी, बल्कि वह और संगीन होता चला जाएगा.

अगर व्यक्तिगत (माइक्रो) स्तर पर देखें तो बसु और पोलान्यी के उक्त संयुक्त-प्रेक्षण के ताजे जमीनी प्रमाण इस समय हमारे सामने मौजूद हैं. मसलन, नये नागरिकता कानून के खिलाफ उत्तर प्रदेश में हुए विरोध-प्रदर्शन को फैलने न देने के लिए राज्य सरकार द्वारा राज्य के कुछ इलाकों में इंटरनेट बंद किया गया. नतीजा यह निकला कि बैंकिंग सेवाएं, नकदी का आवागमन और बैंक की शाखाओं का संचालन बुरी तरह से प्रभावित हुआ. कई दिन ऐसे रहे जिनमें न एटीएम चले और न ही ओटीपी वाले मैसेज आए. साल के आखिर में त्यौहारों के कारण बनने वाले उत्सवधर्मी माहौल के बावजूद व्यापार पर विपरीत असर पड़ा. राजनीतिक और सामाजिक अशांति के कारण होटलों और रेस्तरां में खाने-पीने और बाजार में खरीदारी के लिए जाने वाले लोगों की संख्या में भारी कमी देखी गई.

क्रिसमस और नए साल की मौज-मस्ती के सामाजिक उत्साह के भरोसे बैठा बाजार अपने उपभोक्ताओं की गिरती संख्या देख कर बिसूरता रहा.प्रधानमंत्री ने हाल ही में अर्थशास्त्रियों की एक बैठक करके आर्थिक संकट के विभिन्न आयामों पर विचार-विमर्श किया है. यह ताज्जुब की बात है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण उस बैठक में मौजूद नहीं थीं. बहरहाल, अगर उनकी विचित्र अनुपस्थिति को नजरअंदाज कर भी दिया जाए तो भी प्रधानमंत्री और सरकार की आर्थिक चिंताओं के महत्व को कम करके नहीं आंकना चाहिए. नरेंद्र मोदी हाथ पर हाथ रख कर बैठने वाले नेता नहीं हैं. वे अच्छी तरह जानते होंगे कि अगर समय रहते आर्थिक सूचकांकों में सुधार की शुरुआत नहीं हुई तो स्वयं उनकी और उनकी सरकार की लोकप्रियता पर सवालिया निशान लगने शुरू हो जाएंगे. ऐसा संकट उनके पिछले शासनकाल में नहीं दिखाई दे रहा था. लेकिन, इस बार यह उनकी कड़ी परीक्षा ले रहा है. देखना है कि वे इस इम्तहान में किस तरह से कामयाब होते हैं.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: Movement on one side, troubled market on the other side

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