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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: अर्थशास्त्रियों की बहस और किसान आंदोलन

By अभय कुमार दुबे | Updated: December 23, 2020 10:55 IST

केवल बड़े किसानों (जो संख्या में बहुत कम हैं) के पास ही भंडारण की सुविधा होती है, जिससे वे उपज ज्यादा होने पर फसल रोक कर दाम ठीक होने का इंतजार कर पाते हैं. इस प्रकार के बाजार के कारण ही किसान को एमएसपी पर निर्भर रहना पड़ता है.

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सरकार का आरोप है कि आंदोलनकारी किसान भ्रम के शिकार हैं और उन्हें गलत जानकारी देकर भड़काया गया है. क्या यह सही है? इस प्रश्न का उत्तर तलाशना बहुत जरूरी है. मुझे लगता है कि इस जवाब का एक सूत्र अर्थशास्त्रियों के बीच चल रही बहस पर एक नजर डालने से पकड़ा जा सकता है.

इस संबंध में सबसे पहले हमें उन अर्थशास्त्रियों की बातों पर गौर करना चाहिए जो कृषि क्षेत्र में सुधारों के लंबे अरसे से पक्षधर रहे हैं. इनका मानना है कि खेती में बाजार और निजी पूंजी का हस्तक्षेप उत्तरोत्तर बढ़ाया जाना चाहिए.

किसानों को अपनी उपज एपीएमसी मंडियों के बाहर बेचने का मौका मिलना चाहिए. एमएसपी पर ही निर्भर रहने के बजाय किसानों को बाजार द्वारा तय किए जाने वाले दामों के साथ अपनी खेती का समायोजन करने के लिए तैयार रहना चाहिए.

बजाय इसके कि किसान अपनी पारंपरिक फसलें ही उगाते रहें, उन्हें बाजार की मांगों के मुताबिक दूसरी फसलें उगाने में भी दिलचस्पी दिखानी चाहिए. ये अर्थशास्त्री मानते हैं कि कॉर्पोरेट पूंजी मंडियों को खत्म नहीं करेगी, बल्कि बाजार का विस्तार करने में मदद करेगी.

खास बात यह है कि इन दलीलों के पक्षधर अर्थशास्त्रियों के बीच इन तीन कानूनों के परिणामों को लेकर एकता नहीं है. मसलन, एनआईटीआई आयोग के उपाध्यक्ष रह चुके अरविंद पनगढ़िया और कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी की मान्यता है कि ये कानून किसानों का कल्याण करेंगे और भारतीय कृषि को नई मंजिल की तरफ ले जाने में अहम भूमिका निभाएंगे. लेकिन, भारत के प्रमुख आर्थिक सलाहकार रह चुके कौशिक बसु और रघुराम राजन का तर्क है कि वे सुधारों के तो तरफदार हैं, लेकिन कानूनों को जिस तरह बनाया गया है उससे छोटे और गरीब किसानों के हितों को बुरी तरह से नुकसान पहुंचेगा.

इन कानूनों में आर्थिक रूप से कमजोर किसानों को कॉर्पोरेट पूंजी की मुनाफाखोरी और इजारेदाराना रवैये से बचाने का कोई बंदोबस्त नहीं है. बसु और राजन के इन संदेहों में निर्विकार सिंह जैसे एक अन्य वरिष्ठ अर्थशास्त्री ने भी अपनी आवाज मिलाई है.

इन तीनों ने कहा है कि ऊपर से देखने में ये तीनों कानून समर्थन करने लायक लगते हैं, लेकिन ध्यान से जांच करने पर निकल कर आता है कि इनके लागू होने के बाद कुछ समय बाद ही छोटा और गरीब किसान बड़ी पूंजी के दबाव में बुरी तरह से पिस जाएगा. उसका यह अंदेशा सही साबित होगा कि नए निजाम में धीरे-धीरे एमएसपी का कोई मतलब नहीं रह जाएगा और एपीएमएसी मंडियां केवल बिना खत्म किए खत्म जैसी हो जाएंगी.

इसी जगह हमें उन अर्थशास्त्रियों की दलीलों की चर्चा भी करनी चाहिए जो खेती की अर्थव्यवस्था में इस तरह के सुधारों की ही आलोचना करते हैं. वे इन्हें ‘रिफॉर्म’ की जगह ‘डिफॉर्म’ कहते हैं. इन अर्थशास्त्रियों (डी. नरसिंह रेड्डी, कमल नयन काबरा, अरुण कुमार, के.एन. हरिलाल, राजिंदर चौधरी, रणजीत सिंह घुमन, आर. रामकुमार, विकास रावल, हिमांशु, सुरिंदर कुमार) ने कृषि मंत्री को पत्र लिख कर कहा है कि इन कानूनों को फौरन वापस लेना चाहिए, क्योंकि ये किसान विरोधी हैं. यहां प्रोफेसर अरुण कुमार के एक मानीखेज तर्क पर गौर करने की जरूरत है.

वे कहते हैं कि जिसे कृषि से संबंधित बाजार कहा जा रहा है, वह दरअसल फ्रिज, टीवी, कम्प्यूटर और अन्य उपभोक्ता सामानों के बाजार से अलग तरह की संरचना है. खेतों में पैदा होने वाले माल के दाम उस तरह से तय नहीं होते जिस तरह से फैक्ट्री में बनने वाले माल के तय होते हैं.

उपभोक्ता माल की लागत, टैक्स और अन्य खर्चो के साथ मुनाफे को जोड़ कर दाम निर्धारित कर दिए जाते हैं. इसके उलट खेती की उपज का उत्पादक किसान फसल खराब होने के कारण तो आमदनी खोता ही है, और ज्यादा उपजाने पर भी उसके दाम बुरी तरह गिर जाते हैं. फसल होते ही (चाहे ज्यादा हो या कम) एक ही समय में सभी किसान उसे मंडी लाने के लिए मजबूर होते हैं.

केवल बड़े किसानों (जो संख्या में बहुत कम हैं) के पास ही भंडारण की सुविधा होती है, जिससे वे उपज ज्यादा होने पर फसल रोक कर दाम ठीक होने का इंतजार कर पाते हैं. इस प्रकार के बाजार के कारण ही किसान को एमएसपी पर निर्भर रहना पड़ता है. जाहिर है कि एमएसपी विहीन बाजार में फसल बेचने की आजादी अपने आप में केवल कहने के लिए ही आजादी है.

जाहिर है कि इन तीनों कानूनों का विरोध ऐसे जानकार और विशेषज्ञ लोग भी कर रहे हैं जो खेती और बाजार के संबंधों को बदलने के हक में हैं, पर उस तरीके से नहीं जिस तरीके से मोदी सरकार चाहती है.

ध्यान रहे कि बसु और राजन मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में स्वयं इन सभी सुधारों की सिफारिशें कर चुके हैं, और इसीलिए पनगढ़िया वगैरह ने उन्हें आड़े हाथों लिया है कि आज वे अपनी पहले कही गई बात का ही खंडन कर रहे हैं. पर इस बहस से यह तो साफ हो ही जाता है कि आंदोलनकारी किसानों की आशंकाएं किसी गलतफहमी का नतीजा नहीं हैं. यही कारण है कि वे न तो प्रधानमंत्री की बात मानने के लिए तैयार हैं और न ही कृषि मंत्री की.

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