अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: कोरोना के बीच भाजपामय राजनीति पर एक नजर
By अभय कुमार दुबे | Updated: April 23, 2020 06:45 IST2020-04-23T06:45:30+5:302020-04-23T06:45:30+5:30
केवल चार दशक में किसी राजनीतिक दल के इतने अधिक शक्तिशाली होते चले जाने (भाजपा की ताकत बढ़ने की प्रक्रिया अभी भी जारी है) के कारणों पर रोशनी डालने से हमें हमारे लोकतंत्र के समकालीन मिजाज की कुछ बेहतर समझ हासिल हो सकती है. भाजपा की कामयाबी के बारे में अगर किसी से पूछा जाए तो वह फौरन एक तैयारशुदा जवाब देगा कि उसकी प्रगति नब्बे के दशक में रामजन्मभूमि आंदोलन की लहर पर सवार होने से हुई.

बीजेपी का झंडा। (फाइल फोटो)
आज अगर हम चाहें तो भारतीय जनता पार्टी के गुजर चुके चालीसवें स्थापना दिवस (छह अप्रैल) को केंद्र करके कुछ चिंतन कर सकते हैं. कोरोना के अलावा किसी और बात पर सोच-विचार करने से मन बदलेगा और चिंतन में कुछ विविधता आएगी.
केवल चार दशक में किसी राजनीतिक दल के इतने अधिक शक्तिशाली होते चले जाने (भाजपा की ताकत बढ़ने की प्रक्रिया अभी भी जारी है) के कारणों पर रोशनी डालने से हमें हमारे लोकतंत्र के समकालीन मिजाज की कुछ बेहतर समझ हासिल हो सकती है. भाजपा की कामयाबी के बारे में अगर किसी से पूछा जाए तो वह फौरन एक तैयारशुदा जवाब देगा कि उसकी प्रगति नब्बे के दशक में रामजन्मभूमि आंदोलन की लहर पर सवार होने से हुई.
इस आंदोलन के दौरान और उसके बाद तथाकथित सेक्युलर पार्टियों और नेताओं की गलतियों का फायदा उठा कर भाजपा लगातार आगे बढ़ती गई. देश का माहौल बहुसंख्यवादी होता गया और धीरे-धीरे हालात ऐसे बन गए कि हर पांसा भाजपा के पक्ष में ही पड़ने लगा. आज स्थिति यह है कि चित भी भाजपा की होती है, और पट भी भाजपा की.
यह तैयारशुदा जवाब कमोबेश ठीक है. लेकिन इसमें भाजपा के जीवनकाल के दो महत्वपूर्ण प्रकरण जोड़ना जरूरी है. ये दोनों प्रकरण उसके संगठन के भीतर घटे थे, इसलिए इनकी तरफ आम तौर पर किसी का ध्यान नहीं जाता. पहला प्रकरण है उस जांच-पड़ताल का जो 1984 की भीषण और अपमानजनक पराजय के बाद पार्टी की कृष्णलाल शर्मा कमेटी की रपट के रूप में सामने आया था. मेरा विचार है कि यही वह महत्वपूर्ण रपट थी जिसने भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व और उसके आधारभूत तर्कों को जमाया.
इसी रपट के कारण भाजपा गांधीवादी समाजवाद छोड़ कर हिंदुत्व के स्थापित मुद्दों पर लौटी और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन का खुमार उसके दिमाग से उतरा. इसी रपट में विश्लेषण करके बताया गया कि भाजपा के विचारधारात्मक वोट देश में जितने हैं, 1984 में उससे ज्यादा वोट उसे मिले हैं, इसलिए निराश होने की बात नहीं है. भाजपा के पारंपरिक समर्थकों ने उसका साथ नहीं छोड़ा है. अगर पार्टी अपने बुनियादी मुद्दों को कस कर पकड़ ले, तो उसका पुनरुत्थान हो सकता है. शर्मा कमेटी की रपट एक लंबा दस्तावेज है और पार्टी-रचना में दिलचस्पी रखने वाले हर प्रेक्षक को इसका अध्ययन करना चाहिए.
भटकी हुई पार्टी को कैसे पटरी पर लाया जाता है, और किस तरह निराशा के बीच उसमें आशा का संचार किया जाता है, यह रपट उसका नमूना है. खासकर कांग्रेस के ‘दुखी प्राणियों’ को यह रपट जरूर पढ़नी चाहिए. कांग्रेस की इसी मकसद से बनाई गई एंटनी कमेटी से इस रपट की तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस का पुनरुत्थान क्यों नहीं हो पा रहा है और भाजपा का क्यों हो गया है.
हमें ध्यान रखना चाहिए कि 1984 के बाद प्रगति पथ पर अग्रसर हुई भाजपा 2000 आते-आते यह दावा करने की स्थिति में आ गई थी कि उसके पास देश की किसी भी पार्टी से संख्या में अधिक अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सांसद और विधायक हैं. सवाल यह है कि जिस पार्टी की छवि ब्राह्मण-बनिया पार्टी की थी, वह इस मुकाम तक कैसे पहुंची. यहीं से भाजपा के दूसरे प्रकरण का महत्व सामने आता है.
अगस्त, 2000 में ही भाजपा ने आंध्र प्रदेश की माडिगा अनुसूचित जाति से आए नेता बंगारू लक्ष्मण को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया. बंगारू लक्ष्मण एक स्टिंग आॅपरेशन में कैमरे पर नकदी लेते हुए पकड़े गए और इस तरह उनका राजनीतिक करियर समाप्त हो गया. मीडिया उन्हें भले ही भूल गया हो, लेकिन संघ और भाजपा के भीतर उनका कार्यकाल उस दस सूत्रीय कार्यक्रम के लिए आज भी जाना जाता है जो उन्होंने सामाजिक न्याय की राजनीति के धरातल पर भाजपा को सरपट दौड़ाने के लिए बनाया था.
इस कार्यक्रम में जो दीर्घकालीन रणनीतिक दृष्टि निहित थी, भाजपा आज तक उस पर चल रही है. कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश का ऐसा कोई भी हिस्सा नहीं है जहां हिंदुत्ववादी शक्तियों ने अलग-अलग राज्यों की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के कौशलपूर्वक आकलन पर आधारित अलग-अलग कार्यनीतियों का इस्तेमाल करके अनुसूचित जातियों को अपनी तरफ खींचने की परियोजना न चलाई हो.
जाहिर है कि भाजपा के विकास में संघ की विधेयक भूमिका को हम किसी कीमत पर नजरंदाज नहीं कर सकते. अस्सी के दशक से ही संघ के समरसता मंच ने महाराष्ट्र में स्थापित दलित बुद्धिजीवियों को अपनी ओर खींचने की कोशिश शुरू कर दी थी. अस्सी के दशक में ही जब दलित पैंथरों ने मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने की मांग की तो इस क्षेत्र में ऊंची जातियों और अनुसूचित जातियों के बीच खूनी टकराव भड़क उठा.
इस मुकाम पर महाराष्ट्र भाजपा ने ऊंची जातियों का साथ देने के बजाय पैंथरों की मांग का समर्थन करने का फैसला किया. भाजपा की दोनों अंदरूनी सांगठनिक घटनाओं और संघ की इन कोशिशों को ही मुख्य रूप से भाजपा के मौजूदा विकास का श्रेय मिलना चाहिए.