प्रभु चावला
आजादी के 78 वर्ष बीत जाने के बावजूद, हर ध्वजारोहण के दौरान किए जाने वाले विकास के वादों के बावजूद, नए भारत के तथाकथित डिजिटल केंद्र में अरबों रु. खर्च करने के बावजूद भारतीय नागरिक अपने पहचान पत्रों के साथ बेबस हैं. सुप्रीम कोर्ट की पहले की चेतावनी पर सहमति जताते हुए बॉम्बे हाइकोर्ट ने भ्रम तोड़ दिया है : पहचान के पवित्र टोकन समझे जाने वाले आधार, पैन और वोटर आइडी नागरिकता के सबूत नहीं हैं. ये सारी बातें एक महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर ले जाती हैं. किसी को उसकी भारतीय नागरिकता का प्रमाणपत्र कहां से मिलेगा?
नौकरशाही में तकरार की वजह से आरओसी (सिटिजन ऑफ रजिस्टर) को 2011 से अद्यतन नहीं किया गया है. आरओसी संभवत: अकेला विश्वसनीय दस्तावेज है, जिसे सरकारी अधिकारियों द्वारा हर दशक में तैयार किया जाता है. अब चुनाव आयोग ने नागरिकता प्रदान करने का तंत्र खुद ही विकसित कर लिया है. वह वोट देने के इच्छुक नागरिकों से 11 दस्तावेज मांगता है.
चुनाव आयोग को अब जन्म प्रमाणपत्र, मैट्रिक के प्रमाणपत्र, स्थायी निवास प्रमाणपत्र, शादी के प्रमाणपत्र तथा माता-पिता के जन्म प्रमाणपत्र चाहिए. यह आश्चर्यजनक है कि आधार, पैन और चुनाव आयोग के फोटो प्रमाणपत्र नागरिकता के प्रभावी सबूत नहीं हैं. ऐसा क्यों है, इसका कोई सुसंगत जवाब नहीं दिया गया है.
आयोग को याद दिलाने की जरूरत है कि सिर्फ 2.5 फीसदी भारतीयों के पास पासपोर्ट और मात्र 14.71 प्रतिशत भारतीयों के पास मैट्रिक के प्रमाणपत्र हैं. यह अनुमान लगाना कठिन है कि कितने भारतीयों के पास जन्म प्रमाणपत्र होगा. अदालत में चुनाव आयोग द्वारा पेश आंकड़ा भी बताता है कि ज्यादातर भारतीयों के पास ये दस्तावेज नहीं हैं.
आधार पर सरकार ने 2023 तक 12000 करोड़ रुपए खर्च किए. दावा किया गया कि बैंक खाता खोलने, टैक्स चुकाने, संपत्ति के लेन-देन और हवाई अड्डे जैसी संवेदनशील जगहों पर प्रवेश में यह दस्तावेज काम आएगा. कार खरीदने, घर किराये पर लेने और टैक्स फाइल करने के लिए तो यह अनिवार्य है, पर इससे नागरिकता साबित नहीं होती.
चुनाव आयोग कहता है कि मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने के लिए आधार पर्याप्त नहीं. जिस सरकार ने आधार को हमारे अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण बताया था, वही अब कंधे उचका कर कहती है, ‘सॉरी, यह नागरिकता साबित करने के लिए नहीं है.’ चुनाव आयोग द्वारा जारी मतदाता पहचानपत्र दशकों से मतदान करने का सबूत माना जाता रहा है,
पर अब आयोग को अपनी ही मतदाता सूची गड़बड़ लग रही है, क्योंकि इसमें अवैध रूप से आए घुसपैठियों के नाम भी हैं. सुरक्षित नागरिकता प्रमाणपत्र की दिशा में अब तक ठोस पहल क्यों नहीं की गई, जैसे अमेरिका में सोशल सिक्योरिटी नंबर या ब्रिटेन में नेशनल इंश्योरेंस नंबर है?
बॉम्बे हाइकोर्ट के फैसले पर एडवोकेट सौरव अग्रवाल की टिप्पणी बेधक है, ‘सरकार और न्यायपालिका के लिए नागरिकता के प्रमाण से जुड़े दस्तावेज मुहैया कराने का समय आ गया है. यह आश्चर्यजनक है कि आधार का औचित्य ठहराने के लिए सरकार को सुप्रीम कोर्ट में इतनी कवायद करनी पड़ी और लोगों की निजता के अधिकार का हनन करने के बाद आधार को अब कागज का एक टुकड़ा बताया जा रहा है.’
जाहिर है, देश को यूनिवर्सल सिटिजन कार्ड चाहिए. ऐसा कार्ड, जो पहचान के साथ-साथ नागरिकता और वोट देने का भी प्रमाणपत्र हो. सरकार को एक ऐसा संप्रभु कार्ड तैयार करना चाहिए, जो नागरिकता का प्रमाण हो. कौन भारतीय है, आजादी के 78 वर्ष बाद भी इसका जवाब हवा में है. जाहिर है, सबसे निर्मम सच हमारे सामने है. फिलहाल तो मैं मतदाता हूं. लेकिन भविष्य के बारे में भला क्या कह सकता हूं?