मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता घातक
By गिरीश्वर मिश्र | Updated: August 7, 2025 07:56 IST2025-08-07T07:54:21+5:302025-08-07T07:56:14+5:30
इसको बंद करने से मानसिक स्वास्थ्य की देखरेख के लिए जो भी थोड़े-बहुत मानव संसाधन तैयार हो रहे थे उसे भी बंद कर दिया जाएगा.

मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता घातक
स्वस्थ रहना हमारी स्वाभाविक स्थिति होनी चाहिए पर समकालीन परिवेश में ज्यादातर लोगों के लिए यह संभव नहीं हो पा रहा है. स्वास्थ्य में थोड़ा-बहुत उतार-चढ़ाव तो ठीक होता है और वह जल्दी ही संभल भी जाता है पर परेशानी ज्यादा होने पर वह असह्य हो जाता है और तब व्यक्ति को ‘बीमार’ या ‘रोगी’ कहा जाता है. तब मन बेचैन रहता है, शरीर में ताकत नहीं रहती और दैनिक कार्य तथा व्यवसाय आदि के दायित्व निभाना कठिन हो जाता है, जीवन जोखिम में पड़ता सा लगता है और उचित उपचार के बाद ही स्वास्थ्य की वापसी होती है.
किसी स्वस्थ आदमी का अस्वस्थ होना व्यक्ति, उसके परिवार, सगे-संबंधी, परिजन और मित्र सभी के लिए पीड़ादायी होता है और जीवन की स्वाभाविक गति में ठहराव आ जाता है. तीव्र सामाजिक परिवर्तन के दौर में लगातार बदलाव आ रहे हैं और युवा पीढ़ी इनसे कई तरह प्रभावित हो रही है. उच्च शिक्षा के परिसरों में आत्महत्या, मानसिक शोषण और अस्वास्थ्य की दुर्घटनाएं लगातार सुनाई पड़ रही हैं.
प्रतिभाशाली छात्रों को कोचिंग केंद्रों में शोषण की प्रवृत्ति कितनी घातक है इसका अनुभव बार-बार हो रहा है. ये सब घटनाएं प्रशासन को ध्यान देने के लिए चीख रही हैं. इधर यूजीसी और सुप्रीम कोर्ट ने युवा वर्ग की स्वास्थ्य की बिगड़ती स्थिति का गंभीरता से संज्ञान लिया है और इसके लिए टास्क फोर्स भी गठित हुई है.
शारीरिक स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य को तो आसानी से पहचान लिया जाता है परंतु मानसिक रोगों की उपेक्षा की जाती है. मानसिक रोगों के लिए विशेष प्रशिक्षण और अध्ययन की आवश्यकता होती है. मनोचिकित्सा को विषय के रूप में मेडिकल कालेज में साइकियाट्री के अंतर्गत रखा जाता है और इसमें एमडी की विशेषज्ञता भी होती है. इसी से जुड़े विषय क्लिनिकल साइकोलॉजी और काउंसेलिंग भी हैं.
भारत में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएं जनसंख्या की दृष्टि बहुत कम और अपर्याप्त हैं. क्लिनिकल साइकोलॉजी के अध्ययन की कुछ चुनिंदा संस्थाएं हैं जहां जरूरी और प्रामाणिक प्रशिक्षण दिया जाता है. इस दृष्टि से एमए करने के बाद क्लिनिकल साइकोलॉजी में एम फिल की एक प्रोफेशनल डिग्री का प्रावधान किया गया है. इसके अंतर्गत मानसिक स्वास्थ्य और उपचार के लिए गहन सैद्धांतिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है. नई शिक्षा नीति में एम फिल की डिग्री को एक सामान्य नीतिगत निर्णय के तहत बंद करने का फैसला लिया गया है. इस फैसले के फलस्वरूप अन्य विषयों की तर्ज पर क्लिनिकल साइकोलॉजी में भी एम फिल डिग्री को बंद करना होगा.
ध्यातव्य है कि इस एम फिल डिग्री की उपादेयता को अन्य विषयों में एम फिल के साथ जोड़ कर और उनके बराबर रख कर देखना घातक है. इसका स्वरूप, उद्देश्य और अध्ययन पद्धति भिन्न है. इसको बंद करने से मानसिक स्वास्थ्य की देखरेख के लिए जो भी थोड़े-बहुत मानव संसाधन तैयार हो रहे थे उसे भी बंद कर दिया जाएगा. यह समाज के लिए निश्चय ही बड़ा आत्मघाती कदम साबित होगा. किसी नीति को बिना विचारे आंख मूंद कर लागू करना हानिकर होता है.
सरकार द्वारा मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं और उसके प्रशिक्षित कर्मियों की उपलब्धता को सुनिश्चित करने के प्रयास को प्राथमिकता मिलनी चाहिए. इस दृष्टि से एम फिल क्लिनिकल साइकोलॉजी का पाठ्यक्रम बंद करने का कोई तुक नहीं है. सरकार को इस पर पुनर्विचार करना होगा और मनोचिकित्सा के क्षेत्र को और समृद्ध करना होगा.