गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: भारतीय शिक्षा जगत की भावी चुनौतियों की ओर देना होगा ध्यान
By गिरीश्वर मिश्र | Published: May 18, 2020 10:12 AM2020-05-18T10:12:17+5:302020-05-18T10:12:17+5:30
भारतीय शिक्षा का मूल स्वर जिस तरह मैकाले ने अनुशासित किया वह तब से अब तक अक्षुण्ण बना रहा. रस्म अदायगी के तौर पर राधाकृष्णन और कोठारी आयोग तो बने पर उनकी अधिकांश संस्तुतियां नीति की दृष्टि से हाशिये पर ही बनी रहीं. आगे भी नीतियों और आयोगों का सिलसिला चलता रहा. पर हमारी व्यवस्था हास्यास्पद रूप से कितनी विलक्षण है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि स्कूली बच्चों के बस्ते का वजन कम करने के लिए बनी यशपाल समिति की अनुशंसा भी किसी काम की न हो सकी. हम कुछ न कर सके और स्थिति ज्यों की त्यों है.
जनसंख्या में अनुपात की दृष्टि से जहां भारत का युवा वर्ग आशा बंधाता है वहीं इसको आशानुकूल तैयार करने के मुख्य उपकरण के रूप में शिक्षा को लेकर आम आदमी के मन में कई संशय भी उठते रहते हैं. सच्चाई तो यह है कि भारत में शिक्षा व्यवस्था की जटिल विरासत है और सरकारी तंत्न कुछ नया करने के मार्ग में इतने रोड़े अटकाता रहता है कि हम यथास्थितिवाद के शिकार होकर रह जाते हैं और कोई भी सार्थक परिवर्तन नहीं ला पाते हैं. अंग्रेजों के जमाने की पद्धति को ही अपना कर हम स्वतंत्न भारत में आगे बढ़ते रहे जबकि उसकी आधारभूत स्थापनाएं और व्यवस्थाएं असंदिग्ध रूप से एक उपनिवेश में राज्य चलाने के लिए बनी थीं.
भारतीय शिक्षा का मूल स्वर जिस तरह मैकाले ने अनुशासित किया वह तब से अब तक अक्षुण्ण बना रहा. रस्म अदायगी के तौर पर राधाकृष्णन और कोठारी आयोग तो बने पर उनकी अधिकांश संस्तुतियां नीति की दृष्टि से हाशिये पर ही बनी रहीं. आगे भी नीतियों और आयोगों का सिलसिला चलता रहा. पर हमारी व्यवस्था हास्यास्पद रूप से कितनी विलक्षण है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि स्कूली बच्चों के बस्ते का वजन कम करने के लिए बनी यशपाल समिति की अनुशंसा भी किसी काम की न हो सकी. हम कुछ न कर सके और स्थिति ज्यों की त्यों है.
इसी तरह मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाई का मसला भी दुर्भाग्यपूर्ण उलझाव में है. सारी घोषणाओं के बावजूद विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो सकी. अध्यापक प्रशिक्षण की महत्ता सबको पता है परंतु उसका स्वरूप क्या हो यह अभी भी तय नहीं हो सका है. अब पता चला है कि नई शिक्षा नीति लागू की जाने वाली है. पांच वर्ष के समय, प्रचुर संसाधन और सुविज्ञ जनों के पर्याप्त श्रम से निर्मित इस नीति के उपलब्ध मसौदे कई बदलाव की ओर संकेत करते हैं और बताते हैं कि सरकार इस नीति को लेकर गंभीर है. अब इसके कार्यान्वयन की घड़ी आ रही है. इस अवसर पर हमें यह जरूर सुनिश्चित करना चाहिए कि यह नीति शिक्षा को भारत के लिए प्रासंगिक और सृजनशील बनाए. साथ ही यह भी जरूरी होगा कि हम अपनी वर्तमान समस्याओं का समाधान पा सकें अन्यथा स्थिति और उलझ जाएगी.
इस प्रसंग में यह गौरतलब है कि स्वतंत्नता मिलने के मौके पर महात्मा गांधी, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, महर्षि अरविंद और जाकिर हुसैन जैसे शिक्षा के भारतीय मर्मज्ञ जनों के विचार और प्रयोग भी मौजूद थे और भारतीय ज्ञान परंपरा भी उपलब्ध थी. पर सब व्यर्थ रहा और हम विजेता अंग्रेजों की ही तरह बनने की मंशा के साथ बिना किसी परिवर्तन के अंग्रेजों की लीक पर ही डटे रहे. शायद यह भाव भी मन में बना हुआ था कि पश्चिमी ज्ञान ही वास्तविक, प्रामाणिक और सार्वजनीन है. इस मनोभाव का परिणाम यह हुआ कि शिक्षा पाने का ज्ञानार्जन, कौशल की उपलब्धि और स्वायत्त चेतना के विकास के साथ रिश्ता कमजोर होता गया और नौकरी करना ही प्रमुख होता गया. अंग्रेजी ढांचे में पढ़-लिख कर छोटे, मझोले या बड़े स्तर के बाबू बनने की ख्वाहिश सबके मन में घर कर गई.
आज भी डॉक्टर और इंजीनियर की पढ़ाई कर अनेक महत्वाकांक्षी यदि भारतीय प्रशासनिक सेवा में आना चाहते हैं तो इसके पीछे राज करने की इच्छा ही होती है. यह वही मानसिकता है जिसके चलते विश्वविद्यालय के बड़े आचार्य और कुलपति को सचिव की तुलना में हेठे बर्ताव ङोलने पड़ते हैं. राजा और प्रजा की मानसिकता हर कहीं देखी जा सकती है जो लोकतंत्न की मर्यादाओं को दरकिनार करते हुए हमारे कार्यालयों की स्थायी छवि बन चुकी है. शिक्षा को लोकतंत्न की भावना और प्रणालियों को सबल बनाने के उपाय के रूप में सोचा गया था पर ऐसा हो न सका. वह धीरे-धीरे मानवीय मूल्यों से कटती गई और समानता और सद्भाव की दिशा से विमुख होती गई. अत: आज की बदलती हुई परिस्थिति में शिक्षा की प्रक्रिया को भारतीय संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ जोड़ने की गंभीर आवश्यकता है.
नई शिक्षा नीति देश के सम्मुख एक बड़े अवसर के रूप में उपस्थित है. एक प्रबुद्ध और स्वावलंबी भारत के निर्माण के लिए देश की प्रतिभाओं के विकास में समुचित निवेश अनिवार्य है. आशा है नई शिक्षा नीति में भारत, व्यापक भारतीय समाज और उसकी संस्कृति के सरोकारों को संबोधित किया जाएगा.