Kisan Of India: किसानों की दशा सुधारने की जरूरत, दुख की फसल काट रहे और मन का आक्रोश सड़क पर छलक रहा...

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: October 3, 2024 05:20 IST2024-10-03T05:20:47+5:302024-10-03T05:20:47+5:30

Kisan Of India: “मुझे पता है कि यह बयान विवादास्पद हो सकता है, लेकिन तीन कृषि कानूनों को वापस लाना चाहिए. किसानों को खुद यह मांग करनी चाहिए.”

Kisan Of India Need improve condition farmers blog Prabhu Chawla famous reap what you sow rural expanses Gandhi's Indians live | Kisan Of India: किसानों की दशा सुधारने की जरूरत, दुख की फसल काट रहे और मन का आक्रोश सड़क पर छलक रहा...

सांकेतिक फोटो

Highlightsकेंद्र सरकार ने 2021 के विरोध प्रदर्शन के बाद रद्द कर दिया था. सरकार पर इस क्षेत्र को कॉर्पोरेट शोषण के लिए खोलने का आरोप भी लगाया. कई हिंसक प्रदर्शन किए, जिसमें 500 से अधिक लोग मारे गए.

प्रभु चावला

मशहूर कहावत है कि आप जैसा बोयेंगे, वही फसल काटेंगे. भारत के देहाती विस्तार में, जहां गांधी के भारतीय रहते हैं, किसान दुख की फसल काट रहे हैं. उनके मन का आक्रोश सड़क पर छलक रहा है. पिछले कुछ वर्षों से किसान और उनके नेता भारी बारिश और भीषण गर्मी के बावजूद सड़क पर सो रहे हैं. हो सकता है कि वे वोट बैंक न हों, पर वे समाचारों को प्रभावित करते हैं. पिछले दिनों भाजपा की बड़बोली सांसद कंगना रणावत ने आख्यान में खटास पैदा कर दी. उन्होंने उन तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को लागू करने का आह्वान किया, जिन्हें केंद्र सरकार ने 2021 के विरोध प्रदर्शन के बाद रद्द कर दिया था. उन्होंने उत्तेजक मांग की- “मुझे पता है कि यह बयान विवादास्पद हो सकता है, लेकिन तीन कृषि कानूनों को वापस लाना चाहिए. किसानों को खुद यह मांग करनी चाहिए.”

उनकी टिप्पणियों को निरस्त कानूनों को पुनर्जीवित करने के आधिकारिक प्रयास के रूप में देखा गया. विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने सरकार की आलोचना करते हुए कहा, “भाजपा विचारों का परीक्षण करती रहती है. वे किसी को जनता के सामने एक विचार प्रस्तुत करने के लिए कहते हैं और फिर प्रतिक्रिया देखते हैं.

ठीक ऐसा ही तब हुआ, जब एक सांसद ने काले कृषि कानूनों को पुनर्जीवित करने की बात कही. मोदीजी, कृपया स्पष्ट करें कि क्या आप इसके खिलाफ हैं या आप फिर से शरारत करने पर उतारू हैं.” संसद के दोनों सदनों द्वारा 2020 में पारित ये कानून कृषि बाजारों को विनियमित करने के लिए थे, ताकि किसानों को अपनी उपज गैर-आधिकारिक एजेंसियों को बेचने, थोक खरीदारों के साथ अनुबंध करने और भंडारण सीमा को हटाने की आजादी मिल सके. इन उपायों से उनकी आमदनी बढ़ने की उम्मीद थी.

पर कृषकों ने इस तर्क को स्वीकार नहीं किया तथा सरकार पर इस क्षेत्र को कॉर्पोरेट शोषण के लिए खोलने का आरोप भी लगाया. उन्होंने कई हिंसक प्रदर्शन किए, जिसमें 500 से अधिक लोग मारे गए. बड़ी बाधाओं के बावजूद उनकी लड़ाई जारी है. नेता किसानों को अन्नदाता कहते हैं. लेकिन उनके पास अपनी भूख मिटाने के लिए अन्न नहीं है.

किसानों को आतंकवादी, राष्ट्र-विरोधी, राजनीतिक एजेंट आदि कहा गया है और आंदोलन के तौर-तरीके के लिए उनका मजाक भी उड़ाया गया है. वे सरकारें बनाने या हिलाने वाले वोट बैंक नहीं हैं. किसान उस विकास मॉडल के पीड़ित हैं, जिसने भारतीय कृषि को हाशिये पर धकेल दिया और इसे मुनाफा कमाने वाली बाजार अर्थव्यवस्था का हिस्सा बना दिया.

भारत शायद अर्थशास्त्र के मूल सिद्धांत का अपवाद है. पिछले दो दशकों के दौरान, यह व्यापक औद्योगिक विकास की मध्यवर्ती स्थिति से बिना गुजरे कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था से सेवा-संचालित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ गया है. सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में कृषि का योगदान 1990 में 35 प्रतिशत था, जो 2023 में लगभग 15 प्रतिशत रह गया है.

क्रय शक्ति के मामले में भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, पर इसकी प्रति व्यक्ति कृषि आय शहरी भारतीय की तुलना में आधी है. देश की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी राष्ट्रीय आय के 15 प्रतिशत हिस्से पर जीवन बसर करती है. नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि कृषि विकास दर 2022-23 में 4.7 प्रतिशत थी, जो 2023-24 में 1.4 प्रतिशत हो गई.

ग्रामीण नेता वाजिब सवाल उठा रहे हैं कि अगर सेवा क्षेत्र और शेयर विकास के सारे रिकॉर्ड तोड़ सकते हैं, तो कृषि क्षेत्र पीछे क्यों है. सेवा क्षेत्र, जिसमें विमानन, प्रौद्योगिकी, वित्त आदि शामिल हैं, जीडीपी में 58 प्रतिशत से अधिक का योगदान देता है, जो शायद 10 प्रतिशत से भी कम भारतीयों की जेब में जाता है.

बढ़ती लागत, कृषि उत्पादों के आयात और प्राकृतिक अनिश्चितताओं ने भारतीय किसान को मुश्किल में डाल दिया है. जोतों के बंटवारे ने खेती को घाटे का सौदा बना दिया है. नवीनतम भूमि-धारण सर्वेक्षण के अनुसार, 70 प्रतिशत कृषक परिवारों के पास एक हेक्टेयर से कम भूमि है. पिछले दशक में मोदी सरकार ने इस गिरावट को रोकने के लिए मजबूत कदम उठाए हैं.

सरकार ने किसानों को गेहूं और धान की खरीद के लिए 18 लाख करोड़ से अधिक का भुगतान किया है और उर्वरक सब्सिडी पर 11 लाख करोड़ से अधिक खर्च किए हैं, बड़े पैमाने पर सीधा नगद हस्तांतरण किया है और उत्पादकता में सुधार और ग्रामीण आबादी के लिए बेहतर आवास सुनिश्चित करने के लिए कई योजनाएं बनाई हैं. मगर किसानों की आय दोगुनी करने का उसका वादा अधूरा है.

अर्थशास्त्री किसानों की दुर्दशा का दोष आंशिक रूप से सरकारों और एजेंसियों के कॉर्पोरेटाइजेशन को देते हैं. विदेशी शिक्षा प्राप्त नीति निर्माता भारतीय कृषि को किसी अन्य कॉर्पोरेट पहचान की तरह मानते रहे हैं. वे ऐसे उपाय सुझाते हैं, जो बैंकिंग, दूरसंचार, प्रौद्योगिकी और बड़ी फूड कंपनियों आदि के लिए मांग पैदा करें.

पर आजादी के 75 साल बाद भी 70 प्रतिशत जोतों में सुनिश्चित सिंचाई का अभाव है. हालांकि सरकार ने विनिर्माण क्षेत्र और स्टार्टअप के लिए नए प्रोत्साहन मुहैया किये हैं, लेकिन नवोन्वेषी किसानों के लिए कोई आकर्षक मौद्रिक प्रोत्साहन नहीं है. अन्य क्षेत्रों के विपरीत, सरकार कृषि निर्यात पर प्रतिबंध और भारी शुल्क लगा सकती है.

कॉर्पोरेट लॉबी सरकारी खर्च पर भव्य निवेशक सम्मेलन आयोजित करने में व्यस्त है, पर कृषि संकट पर विचार के लिए शायद ही कभी किसान सम्मेलन हुआ हो. नीति आयोग में बाहर से पढ़े वरिष्ठ सलाहकारों की भरमार है. कृषि किसानों के घटते राजनीतिक दबदबे का शिकार भी बनी है. एक समय, आधे से अधिक सांसदों की आय का प्राथमिक स्रोत कृषि था, अब यह 35 प्रतिशत से कुछ अधिक है.

सेवारत मुख्यमंत्रियों में शायद ही कोई सक्रिय किसान है. केवल दो केंद्रीय मंत्री किसान परिवारों में पैदा हुए हैं. पार्टियों की संरचना में भी यही स्थिति है. एक समय चरण सिंह, देवी लाल, प्रकाश सिंह बादल, एचडी देवेगौड़ा, बलराम जाखड़ और दरबारा सिंह जैसे शक्तिशाली किसान नेता थे, जिन्होंने निर्णयों को प्रभावित किया.

दशकों तक ‘जय किसान’ राजनीतिक सफलता का मंत्र था, अब ‘कौन किसान’ नया सूत्र है. यह समझना चाहिए कि यद्यपि किसान क्रोध के बीज बो रहे हैं, पर नेताओं को रोष की फसल काटनी पड़ेगी. निश्चित रूप से यह राजनीतिक विनाश की फसल होगी. 

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