जापान के टोयोआके नगर ने हाल ही में एक अनोखा प्रस्ताव पेश किया है, जिसके तहत नागरिकों को प्रतिदिन अधिकतम दो घंटे तक ही स्मार्टफोन उपयोग की सलाह दी गई है. यह सीमा कार्य और पढ़ाई जैसे अनिवार्य कार्यों पर लागू नहीं होगी, बल्कि व्यक्तिगत उपयोग के लिए है. साथ ही बच्चों और किशोरों के लिए रात के समय फोन बंद करने की गाइडलाइन भी दी गई है. यह कोई कानूनी आदेश नहीं बल्कि स्वैच्छिक नियम है, लेकिन इसका प्रतीकात्मक महत्व बड़ा है. यहां प्रश्न उठता है कि क्या आधुनिक समाज, जहां स्मार्टफोन जीवन का जरूरी हिस्सा बन चुका है,
वहां इस तरह की सीमा व्यावहारिक है? साथ ही क्या यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं है? इन सवालों का उत्तर आसान नहीं है. दरअसल, स्मार्टफोन आज संचार के साथ-साथ शिक्षा, मनोरंजन, कामकाज और सामाजिक जुड़ाव का अहम साधन बन चुका है. इसके अत्यधिक उपयोग से नींद की कमी, मानसिक तनाव, अवसाद और सामाजिक अलगाव जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं.
जापान में, जहां सामूहिक अनुशासन और सामाजिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जाती है, इस कदम को बच्चों और युवाओं की नींद व पढ़ाई की गुणवत्ता सुधारने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है. जापान में सामाजिक दबाव और अनुशासन का महत्व अधिक है, इसलिए इसे नैतिक आग्रह के रूप में देखा जा सकता है.
यह परिवारों और स्कूलों के लिए संकेत है कि बच्चों में डिजिटल अनुशासन पर काम करना जरूरी है. मनोवैज्ञानिक शोध बताते हैं कि स्मार्टफोन का अत्यधिक उपयोग तनाव, चिंता और ‘फियर ऑफ मिसिंग आउट’ को बढ़ाता है. इससे मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है.
ऐसे में सीमित उपयोग का यह संदेश समाज के लिए लाभकारी हो सकता है. लेकिन समाधान केवल समय-सीमा तय करने से नहीं मिलेगा, बल्कि डिजिटल साक्षरता, पारिवारिक संवाद और स्वस्थ तकनीकी आदतों से ही स्थायी समाधान संभव है. वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो यूरोप, अमेरिका और चीन जैसे देशों में भी बच्चों और युवाओं के स्क्रीन-टाइम पर चिंता जताई जा रही है.
यानी यह एक व्यापक वैश्विक प्रवृत्ति है. बहरहाल, टोयोआके का यह प्रस्ताव एक प्रयोग है. यह शायद पूर्ण समाधान न हो, लेकिन यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि कहीं हम तकनीक के गुलाम तो नहीं बन रहे. संतुलन यदि हम खुद नहीं बनाएंगे तो समाज को ऐसे अनुशासनात्मक प्रयोग करने ही पड़ेंगे.