अभिलाष खांडेकर
केंद्र सरकार के आर्थिक सलाहकारों को आखिरकार समझदारी का परिचय देते हुए जनता की आवाज सुनने पर मजबूर होना पड़ा है. इसी के तहत, उन्होंने जीएसटी की दरें कम कर दी हैं और स्लैब चार से घटाकर दो कर दिए हैं. आठ साल पहले हुई भयंकर गलती को सुधार लिया गया है, लेकिन इतने सालों तक लागू रहे इस सरासर गलत फैसले को राजनीतिक रूप देकर उसका ‘जश्न’ मनाना क्या सही हैं? लोग अच्छी तरह समझते हैं कि आर्थिक प्रयोग के नाम पर उनके साथ क्या किया गया था. वर्ष 2017 में नई कर व्यवस्था लागू होने के बाद से ही विशेषज्ञों, व्यापारिक नेताओं और विभिन्न गैर-भाजपा शासित राज्यों के वित्त मंत्रियों द्वारा अनेक आशंकाएं व्यक्त की गई थीं. याद करें जीएसटी परिषद की बैठकों को जिनमें कई तीखी बहसें, सकारात्मक सुझाव और राज्यों द्वारा व्यक्त की गई आशंकाएं देखी गई थीं.
इन फैसलों में मुद्रास्फीति और छोटे व्यापारियों की समस्याएं शामिल थीं, जिनकी आय सीमित थी और इसलिए वे कर भुगतान और रिफंड की जटिल प्रक्रिया को समझने के लिए चार्टर्ड अकाउंटेंट का खर्च नहीं उठा सकते थे. उपभोक्ताओं पर अत्यधिक बोझ भी डाला गया था जिससे बचत गायब हो गई और 2016 में अचानक और गुप्त रूप से लिए गए नोटबंदी के फैसले के बाद, अर्थव्यवस्था के लिए जीएसटी एक और झटका था, हालांकि सरकार लगातार दावा करती रही कि भारतीय अर्थव्यवस्था बढ़ रही है और कर आधार व्यापक हुआ है; और वित्त मंत्रालय इसे सही तरीके से कर रहा था.
यह बताने की जरूरत नहीं है कि केंद्र सरकार ने नोटबंदी का कभी ‘जश्न’ नहीं मनाया क्योंकि इसका उल्टा असर हुआ था. कालाधन और आतंकवाद, दोनों पर उतना नियंत्रण नहीं पाया जा सका, जितना दावा किया गया था. प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग द्वारा राजनेताओं, व्यापारियों और नौकरशाहों पर मारे जाने वाले छापे अभी भी नियमित रूप से भारी मात्रा में कालाधन उगल रहे हैं,
हालांकि सत्ताधारी नेताओं को इससे छूट दी गई है. संसद में जून 2017 में जब आधी रात को घंटी बजी और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बहुचर्चित आर्थिक सुधारों को अभूतपूर्व बताते हुए उनकी शुरुआत की, तो मैं सेंट्रल हॉल में मौजूद था. तब भाजपा लगातार अपनी पीठ थपथपाती रही कि यह ‘ऐसा कुछ है जो कांग्रेस सरकार नहीं कर पाई.’
सोशल मीडिया पर भाजपा सरकार के एक और यू-टर्न पर जमकर निशाना साधा जा रहा है, लेकिन सरकार यह ठीक से नहीं बता पा रही है कि आखिर इतनी ऊंची दरें क्यों प्रस्तावित की गईं. इस जटिल व्यवस्था ने लाखों व्यापारियों की आंखों में आंसू ला दिए हैं. क्या वे भाजपा को माफ करेंगे?
वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की दरों और इस ‘ऐतिहासिक सुधार’ को लागू करने के तरीके के खिलाफ भारत भर में बैनर और पोस्टर लगाए गए थे. लेकिन सरकार ने ध्यान नहीं दिया, जैसा कि कृषि कानूनों के मामले में भी किया गया, जिसके परिणामस्वरूप कई किसानों की मौत हो गई थी.
आखिरकार, सरकार ने यू-टर्न लिया और उत्तरी राज्यों के वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए किसानों को खुश करने की कोशिश की. राजनीतिक पंडितों ने तब यही राय दी थी कि नोटबंदी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर की गई थी. जीएसटी के चक्रव्यूह और विवादों के जाल के मामले में, सरकार या तो 2017 में इन सुधारों को लागू करके सही थी या फिर लाखों लोगों-बेबस उपभोक्ताओं और मतदाताओं - की अंतहीन पीड़ा के बाद, अब इन जरूरी बदलावों को लाने में सही है. भाजपा को एक साथ दो चीजें नहीं मिल सकतीं!
जाहिर है, यह वापसी भाजपा के लिए ज्यादा जरूरी थी और उपभोक्ताओं के लिए कम है. अर्थशास्त्रियों ने वर्ष 2000 से ही इस कर प्रणाली के सभी नुकसानों की ओर इशारा किया था. यहां तक कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी, जब मनमोहन सिंह इस पर विचार कर रहे थे, आपत्ति जताई थी.
वर्ष 2004 से 2014 तक यूपीए सरकार ने उपभोक्ताओं की अंतर्निहित समस्याओं को अच्छी तरह जानते हुए इस योजना को लागू नहीं किया. अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री उदारवादी थे और एक राष्ट्र, एक कर- आधारित विचार को लागू करने की बारीकियों से वाकिफ थे. आलोचकों ने अक्सर प्रधानमंत्री की कथित ‘राजनीतिक समझ की कमी’ का मजाक उड़ाया था,
लेकिन सिंह अपनी मृत्यु के काफी बाद भी सही साबित हुए. वे इतने समझदार थे कि उद्योग और समाज, जिसमें गरीब, निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग शामिल थे, की कठिनाइयों को भलीभांति समझते थे. अब नेता लोग जनता को जोर देकर समझा रहे है कि सरकार का कर बदलाव का कदम कितना अच्छा है.
यह गहरे अफसोस की बात है कि भाजपा अपने आठ साल की राजनीतिक हारा-कीरी का जश्न जीएसटी 2.0 की सफलता का प्रचार करने के लिए मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को अलग-अलग जगहों पर भेजकर मना रही है. जाहिर है, यह सब हद से ज्यादा हो रहा है!
हर कोई एक ही सवाल पूछ रहा है: उन्हें एक गलत योजना का खामियाजा क्यों भुगतना पड़ा? विशेषज्ञ मांग कर रहे हैं कि इस वर्ष वसूला गया 28% टैक्स उपभोक्ताओं को वापस किया जाना चाहिए. राहुल गांधी इसे पहले ही गब्बर सिंह टैक्स (जीएसटी) कह चुके हैं; इस बड़े सुधार का श्रेय उन्हें दिया जाना चाहिए. या फिर बिहार के नजदीकी चुनाव को.