डॉलर पर आ रही आंच, पर दुनिया के पास विकल्प नहीं
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: July 17, 2025 07:16 IST2025-07-17T07:15:12+5:302025-07-17T07:16:48+5:30
दुनिया के ज्यादातर कर्ज, बांड, बैंकिंग लेन-देन, कॉर्पोरेट फाइनेंस डॉलर में होते हैं. डॉलर पूंजीगत लाभ, ब्याज आय देता है, भुनाने में आसान भी है.

डॉलर पर आ रही आंच, पर दुनिया के पास विकल्प नहीं
सुनील सोनी
सन् 2025 की पहली छमाही में अमेरिकी डॉलर को वैश्विक मुद्रा बाजार में बड़ा झटका लगा है. डॉलर की ताकत मापने वाला यूएस डॉलर सूचकांक (डीएक्सवाई) 11% से अधिक गिरा है. यह 1973 में ब्रेटन वुड्स व्यवस्था के ढहने के बाद सबसे बड़ी गिरावट है. यह गिरावट तब हुई, जब डोनाल्ड ट्रम्प की सत्ता में वापसी ने अमेरिका की घरेलू तथा वैश्विक नीतियों की दिशा को बदल दिया है.
इनका असर कूटनीति या जलवायु समझौतों तक सीमित नहीं है, बल्कि डॉलर की वैधता और स्थिरता तक पहुंच चुका है. 1944 में बनी ब्रेटन वुड्स व्यवस्था में वैश्विक मुद्राएं अमेरिकी डॉलर से जुड़ी थीं और डॉलर सोने से. उद्देश्य स्थिर विनिमय दर और आर्थिक स्थिरता था. 1971 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने डॉलर को सोने से अलग कर दिया, तो यह व्यवस्था ढह गई. फिर भी अमेरिका ने आर्थिक, राजनीतिक व सैन्य ताकत के बूते डॉलर को वैश्विक मुद्रा बनाए रखा.
1973 के बाद डॉलर को झटके तो लगे, लेकिन वह अंतरराष्ट्रीय लेन-देन और रिजर्व का प्रमुख माध्यम बना रहा. डॉलर से चलनेवाली स्वैप लाइनें और अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग नेटवर्क मिलकर उसे वह दर्जा देते हैं, जिसे अब तक कोई मुद्रा चुनौती नहीं दे सकी है.
फिलहाल डॉलर में गिरावट के मूल में चार कारण हैं. पहला, मंदी की आशंका और चुनावी दबाव में दो बार ब्याज दरें घटाना. इससे बांड का यील्ड कम हो गया और डॉलर की मांग कमजोर पड़ी. दूसरे; बजट घाटे, कर्ज सीमा विवाद और राजनीतिक अनिश्चितता, जिससे वैश्विक निवेशकों का भरोसा डगमगाया है. तीसरा; अमेरिका का राष्ट्रीय कर्ज 35 ट्रिलियन डॉलर से अधिक हो चुका है.
चौथा, ट्रम्प ने वैश्विक वित्तीय स्थिरता व व्यापार नियम बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, यूएन, आईएमएफ, डब्ल्यूटीओ को दरकिनार कर दिया है. ट्रम्प अब फेड रिजर्व को सरेआम धमका ही रहे हैं कि ब्याज दरें और कम करे. अमेरिकी संस्थानों की विश्वसनीयता कानूनी ढांचे व फेड रिजर्व की आजादी और राजकोषीय स्थिरता पर टिकी होती है. ट्रम्प उस नींव को हिला रहे हैं.
ट्रम्प ने डॉलर को भू-राजनीतिक औजार बना दिया है. वे इसके मार्फत प्रतिबंध, टैरिफ एवं दूसरे कूटनीतिक दबाव डाल रहे हैं. इसने अमेरिकी नीतियों से असहमत देशों को वैकल्पिक रास्ता खोजने पर मजबूर किया है. चीन, रूस, ब्राजील, ईरान, भारत जैसे देश गैरडॉलर लेन-देन करने लगे हैं. कई सौदे युआन, रूबल, येन, दिरहम, रुपए में हो रहे हैं. सोना और डिजिटल करेंसी रिजर्व संपत्ति बन रही है.
2023 से 2025 के बीच चीन ने 100 अरब डॉलर से अधिक अमेरिकी बांड घटाए हैं. यानी कोई वैकल्पिक मुद्रा पूरी तरह तैयार न हो, पर डॉलर को चुनौती मिल रही है. फिलहाल हर वैकल्पिक मुद्रा या प्रणाली (युआन, सीबीडीसी, यूरो, सोना, क्रिप्टो) की सीमाएं हैं.
युआन पर नियंत्रण व पारदर्शिता कम है. डिजिटल करेंसी (सीबीडीसी) के स्टेबलकॉइन्स अभी शुरु हो रहे हैं और अंतरसंचालनीय नहीं है. यूरो अस्थिर है, क्रिप्टो रहस्यमय. सोना ‘वैश्विक संपत्ति’ है, पर उसे भुनाना आसान नहीं और उससे ब्याज नहीं मिलता. यानी फिलहाल कोई डॉलर जैसा नहीं. डॉलर इंडेक्स में गिरावट से वैश्विक मौद्रिक व्यवस्था में बदलाव तुरंत नहीं होने जा रहा, पर यह डॉलर के प्रभुत्व को दीर्घकालिक संरचनात्मक चुनौती है.
डॉलर की हैसियत : डॉलर महज व्यापार या विनिमय का माध्यम नहीं है. वह नगदी से ज्यादा भरोसेमंद है. सारे देश विदेशी मुद्रा भंडार का बड़ा हिस्सा डॉलर सरकारी बांड में रखते हैं, क्योंकि वह ‘ग्लोबल स्टोर ऑफ वैल्यू’ है. 25 ट्रिलियन डॉलर का अमेरिका ट्रेजरी बांड बाजार दुनिया में सबसे बड़ा है. दुनिया के ज्यादातर कर्ज, बांड, बैंकिंग लेन-देन, कॉर्पोरेट फाइनेंस डॉलर में होते हैं. डॉलर पूंजीगत लाभ, ब्याज आय देता है, भुनाने में आसान भी है.
स्विफ्ट, चिप्स, फेडवायर जैसे त्वरित भुगतान नेटवर्क से रोजाना 7 ट्रिलियन डॉलर का लेन-देन होता है. डॉलर एक पूरी व्यवस्था है, जो चौबीसों घंटे चालू रहती है. दुनिया का 88% विदेशी व्यापार किसी न किसी रूप में डॉलर से होता है. दुनिया के प्रमुख आर्थिक खिलाड़ी (जापान, चीन, इंग्लैंड, भारत) अमेरिकी बांड के बड़े धारक हैं.