न्या. भूषण गवई-
दुनिया भर की अदालतें न्यायिक प्रक्रिया की दक्षता बढ़ाने, निर्णय प्रक्रिया में तेजी लाने और न्याय देने में सुविधा प्रदान करने के लिए बड़े पैमाने पर प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रही हैं. न्याय प्रक्रिया में अकुशलता और लंबित मामलों जैसी दीर्घकालिक चुनौतियों से निपटने में प्रौद्योगिकी उपयोगी साबित हो रही है. प्रौद्योगिकी और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उपयोग से न्यायिक प्रक्रिया में आए सुधार और नई संभावनाओं पर विचार की जरूरत है. प्रौद्योगिकी ने न्यायिक मामलों के प्रबंधन में क्रांति की है. पहले कागज का प्रयोग होता था, अब डिजिटल प्रणालियों ने मामलों का फॉलोअप लेना आसान बना दिया है.
सुनवाई की तारीखें निर्धारित करना और संबंधित दस्तावेज हासिल करना भी आसान हो गया है. डिजिटल प्रबंधन से न्यायालयों को किसी भी समय आवश्यक जानकारी उपलब्ध हो जाती है. वकील और पक्षकार अपने मामलों की प्रगति पर घर बैठे नजर रख सकते हैं. उन्हें न्यायालय के चक्कर काटने की आवश्यकता नहीं.
स्वचालित अधिसूचना प्रणालियां, साथ ही एसएमएस और ई-मेल के माध्यम से मिलने वाली अधिसूचनाएं पारदर्शिता बढ़ाती हैं और अगली सुनवाई की तारीखों, अपील दायर करने की समय-सीमा और मामले की प्रगति के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है. मामलों को सुनवाई हेतु लिए जाने की प्रक्रिया में कई प्रशासनिक बाधाएं आती हैं, जिनके कारण सुनवाई की तारीखें निर्धारित करना सिरदर्द बना रहता है.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल से यह काम आसान हो गया है. चूंकि तारीखें न्यायाधीशों की जानकारी और कार्य के बोझ को ध्यान में रखकर दी जाती हैं, इसलिए उन पर काम का तनाव नहीं होता.भारतीय न्यायिक प्रणाली में हाइब्रिड वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग को अपनाने से न्याय प्रदान करना सुविधाजनक हो गया है और अधिक कुशलता से न्याय मिलता है.
देश के किसी भी हिस्से का वकील अब लॉग-इन कर अदालत में बहस कर सकता है. इससे भौगोलिक सीमाएं समाप्त हो गई हैं और भौतिक उपस्थिति से जुड़ी कठिनाइयों और यात्रा व्यय में काफी कमी आई है. पक्षकारों के लिए इसे वहन करना कठिन होता है. वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से वकील देश के किसी भी कोने से अदालत में पेश हो सकते हैं.
अब न्याय केवल उन लोगों तक सीमित नहीं रह गया जो राजधानियों तक पहुंचने का खर्च उठा सकते हैं. इससे जिला एवं कनिष्ठ अदालतों में काम करने वाले जूनियर वकीलों को काफी लाभ हुआ है. प्रौद्योगिकी ने न केवल न्याय प्रशासन के कार्य को सुव्यवस्थित किया है, बल्कि वकीलों और पक्षकारों के लिए न्यायालयों, विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचना भी आसान बना दिया है.
वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से कोविड-19 महामारी के दौरान भी लोगों को न्याय मिलता रहा, न्यायदान व्यवस्था रुकी नहीं. सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय प्रणाली में जन भागीदारी को प्रोत्साहित करने और न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता बढ़ाने के लिए संवैधानिक मामलों की कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग की परंपरा शुरू की है. नागरिक कार्यवाही को प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं. इससे लोगों की जागरूकता बढ़ी है.
इसके अलावा, महत्वपूर्ण कानूनी मामलों और संवैधानिक चर्चाओं में जनता की रुचि बढ़ी है. इस लाइव प्रसारण को भारत में लाखों लोग देखते हैं. इससे स्पष्ट होता है कि वे यह समझना चाहते हैं कि न्याय व्यवस्था किस तरह काम करती है. सर्वोच्च न्यायालय ने मुकदमों के निर्णयों का अनुवाद विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध कराना शुरू कर दिया है.
इससे कानूनी प्रक्रिया अधिक समावेशी बनेगी और समाज के विभिन्न वर्गों को भाषायी बाधाओं के बावजूद न्याय प्रक्रिया को समझने में मदद मिलेगी. सर्वोच्च न्यायालय ने इलेक्ट्रॉनिक सुप्रीम कोर्ट रिपोर्ट्स के साथ-साथ डिजिटल सुप्रीम कोर्ट रिपोर्ट्स के रूप में एक ऑनलाइन डाटाबेस उपलब्ध कराया है. उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्णय भी वहां उपलब्ध हैं.
इससे पहले, इस पेशे में कार्यरत लोगों और शोधकर्ताओं को केस लॉ प्राप्त करने के लिए निजी प्रकाशकों को शुल्क देना पड़ता था. युवा वकील, कानून के छात्र और आम जनता इसे वहन नहीं कर सकते थे. चूंकि यह सब डिजिटल रूप में उपलब्ध है, इसलिए अदालती फैसले और रिपोर्ट्स अब किसी के लिए भी आसानी से और निःशुल्क उपलब्ध हैं.
यद्यपि प्रौद्योगिकी ने न्याय प्रक्रिया को सरल बना दिया है परंतु इसने कई नैतिक प्रश्न भी खड़े किए हैं. मुख्यतः, अनुसंधान के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर निर्भर रहने में जोखिम है. यह पाया गया है कि चैटजीपीटी ने न्यायिक मामलों में झूठे साक्ष्य उपलब्ध कराए और गलत तथ्य प्रस्तुत किए.
यह सही है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता बड़े पैमाने पर कानूनी जानकारी को संसाधित कर सकती है और तत्काल सारांश प्रदान कर सकती है, लेकिन इसके स्रोत को मानवीय बुद्धिमत्ता द्वारा सत्यापित नहीं किया जा सकता. इसके कारण वकील या शोधकर्ता अनजाने में ऐसे मामलों का उदाहरण दे देते हैं जो वास्तविक नहीं हैं. इनके आधार पर वे गलत जानकारी दे देते हैं.
व्यावसायिक दृष्टि से इसकी वजह से समस्या खड़ी हो सकती है, इसमें कानूनी दांव-पेंच भी हैं. क्या न्यायालयीन निर्णय लेने में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग किया जा सकता है? इस बारे में भी काफी विचार-विमर्श चल रहा है. क्या एक मशीन जो मानवीय भावनाओं और नैतिक तर्क से अनजान है, कानून की जटिलताओं को समझ सकती है?
न्याय केवल नैतिकता, सहानुभूति और संदर्भ को समझकर ही हासिल किया जा सकता है. ये बातें एल्गोरिदम से परे हैं. इसलिए न्यायिक प्रक्रिया में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए. इस तकनीक को मानवीय निर्णय-प्रक्रिया के विकल्प के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.
भारत के संबंध में एक चिंता का विषय यह है कि अदालती कार्यवाही की छोटी-छोटी क्लिप सोशल मीडिया पर प्रसारित की जाती हैं. कभी-कभी इससे सनसनी पैदा हो जाती है. यदि ऐसी क्लिप संदर्भ से बाहर हों तो अदालती कार्यवाही की गलत व्याख्या हो सकती है.
इसके अलावा, यूट्यूबर्स सहित कई कंटेंट निर्माता न्यायिक प्रक्रिया के कुछ हिस्सों को अपने कंटेंट के रूप में उपयोग करते हैं. इससे बौद्धिक संपदा अधिकारों संबंधी प्रश्न खड़े होते हैं. ऐसे नैतिक मुद्दों के समाधान के लिए पारदर्शिता, जनजागरूकता और न्यायालयीन जानकारी के जिम्मेदार उपयोग के बीच संतुलन साधना जरूरी है.
(केन्या के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नैरोबी में आयोजित एक विशेष सेमिनार में दिए गए भाषण का संपादित अंश)