अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: क्या चुनाव पर अर्थव्यवस्था का असर पड़ेगा?
By अभय कुमार दुबे | Updated: April 24, 2019 07:32 IST2019-04-24T07:32:43+5:302019-04-24T07:32:43+5:30
देश के सर्वोच्च कॉर्पोरेट घराने के मुनाफे के आंकड़ों पर नजर जाती है और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की बदहाली के आंकड़ों से उसकी तुलना की जाती है.

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: क्या चुनाव पर अर्थव्यवस्था का असर पड़ेगा?
देश में इस समय लोकसभा चुनाव चल रहे हैं और हमारे वित्त मंत्री का दावा है कि भारत एक महाशक्ति बनने की तरफ बढ़ रहा है. वित्त मंत्री की इन बातों को तथ्यों की कसौटी पर कस कर देखा जाना चाहिए. सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस समय हमारा कुल घरेलू उत्पादन 6.6 फीसदी की दर से बढ़ रहा है. विख्यात अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने सवाल पूछा है कि यह ग्रोथ रेट अर्थव्यवस्था के विभिन्न दायरों में दिख क्यों नहीं रही है? मसलन, फरवरी, 2019 में भारत के औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक केवल 0.1 प्रतिशत की दर से बढ़ा, और कुल औद्योगिक वृद्धि 2.1 फीसदी रही. निर्यात की हालत इतनी बुरी है कि उसकी वृद्धि दर पिछले पांच साल में शून्य पर आ गई है. बचत और निवेश की दर 2008 में 35 फीसदी से ज्यादा थी, जो तीस प्रतिशत से नीचे चली गई है. कृषि के क्षेत्र की हालत पहले भी खस्ता थी, और अब और भी खराब हो गई है. जहां तक रोजगार का सवाल है, सरकार ने इसके आंकड़े रोक लिए हैं लेकिन अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय का एक अध्ययन बताता है कि केवल नोटबंदी के कारण पचास लाख से ज्यादा नौकरियों का नुकसान हुआ है.
उस समय दिमाग और चकरा जाता है जब देश के सर्वोच्च कॉर्पोरेट घराने के मुनाफे के आंकड़ों पर नजर जाती है और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की बदहाली के आंकड़ों से उसकी तुलना की जाती है. 31 मार्च को खत्म हुई तिमाही में इस घराने के मुनाफे में 10,262 करोड़ रुपए का जबरदस्त इजाफा हुआ है. जाहिर है कि कोई भी समीक्षक इस नतीजे पर पहुंचेगा कि अर्थव्यवस्था में जो भी वृद्धि हो रही है, वह शीर्ष पर केंद्रित है. उसका लाभ किसानों, मजदूरों, निम्न वर्ग, निम्न-मध्यम वर्ग और छोटे-मंझोले व्यापारियों को बिल्कुल नहीं हो रहा है.
यहीं, सवाल पूछा जा सकता है कि क्या अर्थव्यवस्था के शीर्ष पर हो रही यह बढ़ोत्तरी टिकी रह सकती है अगर बाकी अर्थव्यवस्था अपने पैर घसीटते हुए चल रही हो? यहीं जेट एयरवेज की तालाबंदी का रूपक सामने आता है. एयरलाइंस चलाना एक पूंजी-सघन उद्योग है. विरोधाभास यह है कि जिस समय भारत में हवाई यात्र करने वालों की संख्या प्रति वर्ष बीस फीसदी के आसपास बढ़ रही हो, और इस लिहाज से इस उद्योग के पास उपभोक्ताओं की कोई कमी न हो, एक-एक करके एयरलाइंस बंद होती चली जा रही हैं. इन एयरलाइनों के बंद होने के पीछे इनके मालिकों की गलतियां हो सकती हैं, लेकिन सरकार भी कम दोषी नहीं है. अगर वक्त रहते भारी कराधान के कारण महंगे हवाई ईंधन को जीएसटी के दायरे में ले लिया गया होता और एयरपोर्ट के इस्तेमाल पर लगने वाले शुल्क का सुसंगतीकरण कर दिया गया होता, तो शायद इस समय उड्डयन-क्षेत्र का नजारा कुछ और होता. जाहिर है कि अगर दूसरे घिसटते हुए क्षेत्रों पर नजर डाली जाए तो वहां भी अर्थव्यवस्था के नियामक के रूप में सरकार की अक्षमता निकल कर सामने आ जाती है.
मसलन, चीन में तनख्वाहें बढ़ रही हैं यानी वहां के उत्पादों की लागत भी बढ़ रही है और उसका निर्यात महंगा हो रहा है. ऐसे में भारत के पास मौका है कि वह अपने यहां सस्ते श्रम का लाभ उठा कर कम लागत के उत्पाद तैयार करके निर्यात के बाजार में अपने जौहर दिखाए. अगर वह ऐसा कर पाए तो अपने देश में नौकरियों की संख्या बढ़ेगी और कृषि के क्षेत्र को भी कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा, लेकिन इसके लिए सरकार को जिस तरह की नीतियां बनानी चाहिए थीं, वे उसने नहीं बनाईं और न ही वह बनाने के मूड में लग रही है. नतीजे के तौर पर भारत इस परिस्थिति का लाभ उठाने में असमर्थ साबित हो रहा है.
2016 में व्यापार करने की आसानी के लिहाज से 189 अर्थव्यवस्थाओं में भारत का स्थान 130वां था. सरकार ने लालफीताशाही में कटौती करने वाले कुछ प्रशंसनीय कदम उठाए जिससे 2018 तक भारत का स्थान सुधर कर 77वां हो गया. कायदे से देखा जाए तो इस प्रगति का भारतीय अर्थव्यवस्था को लाभ होना चाहिए था. उसका उत्पादन बढ़ना चाहिए था और रोजगार के अवसर भी बढ़ने चाहिए थे, लेकिन दोनों में से कोई भी फायदा होते नहीं दिखाई दिया. ऐसा क्यों हुआ? दरअसल, वास्तविक रूप से लालफीताशाही में कटौती नहीं हुई. विश्व बैंक ने ऐसा करने के लिए भारत को दस सुझावों का एक पैकेज थमाया था. इस पर अमल करने से भारत की रैंकिंग में तो सुधार आ गया, लेकिन जमीन पर वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ा. नतीजे के तौर पर आर्थिक गतिविधियों में कोई उछाल नहीं आया.
चूंकि चुनाव चल रहे हैं तो यह सवाल लाजिमी तौर पर पूछा जाना चाहिए कि क्या अर्थव्यवस्था की इस दुर्गति का वोट के मोर्चे पर कोई असर पड़ेगा? क्या नोटबंदी से प्रभावित लोग अपनी वोट डालने की प्राथमिकता इसके आधार पर तय करेंगे? क्या छोटे-मंझोले उद्योगों की बरबादी से प्रभावित हुआ आबादी का विशाल तबका इस आधार पर अपनी राजनीति तय करेगा? या सिर्फ बालाकोट स्ट्राइक के आधार पर ही सरकार बनने या न बनने का फैसला होगा? ये कठिन प्रश्न हैं और इनका उत्तर 23 मई को
मिलेगा.