गुरचरण दास का ब्लॉग: 5 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था के लिए 10 कदम
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: December 8, 2019 06:55 IST2019-12-08T06:55:02+5:302019-12-08T06:55:02+5:30
भारत को आरसीईपी में शामिल होना चाहिए था. प्रस्ताव पर डील काफी हद तक अच्छी थी और हमारी कई आशंकाएं दूर हो गई थीं.

गुरचरण दास का ब्लॉग: 5 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था के लिए 10 कदम
4 नवंबर 2019 एक दुखद दिन था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह स्वीकार करते हुए कि भारत एशिया, विशेषकर चीन के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता, आखिरी क्षणों में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) वार्ता से बाहर निकलने का फैसला किया. यह एक बड़ा निर्णय था, क्योंकि यह कोई मामूली व्यापार समझौता नहीं है. अगर भारत शामिल हो जाता तो आरसीईपी दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र बन जाता, जिसमें 16 देशों के साथ दुनिया की आधी आबादी, वैश्विक व्यापार का चालीस फीसदी और दुनिया की संपत्ति का 35 फीसदी हिस्सा दुनिया के सबसे तेजी से बढ़ते क्षेत्र में शामिल होता.
भारत को आरसीईपी में शामिल होना चाहिए था. प्रस्ताव पर डील काफी हद तक अच्छी थी और हमारी कई आशंकाएं दूर हो गई थीं. हमारे किसानों को कृषि उत्पादों और दूध के आयात से(जैसे न्यूजीलैंड से) सुरक्षा दी गई थी. एक चौथाई चीनी उत्पादों को बाहर रखा गया था और बाकी के लिए पांच से 25 साल तक टैरिफ की लंबी अवधि दी गई थी. इस डील में 60 सबसे संवेदनशील उत्पादों के चीन से भारत आयात में अचानक वृद्धि को लेकर अद्वितीय सुरक्षा कवच प्रस्तावित था.
एशिया के कई छोटे देश- वियतनाम, थाईलैंड, फिलीपीन्स, लाओस, म्यांमार- आरसीईपी में शामिल हो सकते हैं तो भारत क्यों नहीं? टैरिफ संरक्षण की जरूरत क्यों है जो आमतौर पर नवजात उद्योगों के लिए होती है? भारत की कंपनियां आजादी के 72 साल बाद भी नवजात क्यों हैं? यह कंपनियों की गलती नहीं है बल्कि 1950 के दशक से हमारी सभी सरकारों की खराब नीतियां इसके लिए जिम्मेदार हैं.
इतिहास बताता है कि कोई भी देश निर्यातक बने बिना समृद्ध नहीं हुआ है. खुली अर्थव्यवस्थाओं ने लगातार बंद अर्थव्यवस्थाओं से बेहतर प्रदर्शन किया है. सच्चई यह है कि पांच ट्रिलियन डॉलर का लक्ष्य बिना निर्यात के हासिल नहीं किया जा सकता. आरसीईपी की नाकामी का सबक यह है कि भारत को प्रतिस्पर्धी बनने के लिए निर्भीक रूप से कार्य करना चाहिए और साहसिक सुधारों पर अमल करना चाहिए. हम अभी भी मार्च 2020 तक समझौते में शामिल हो सकते हैं, जब व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए जाएंगे. सही काम करने के लिए कभी भी बहुत देर नहीं होती है. राष्ट्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए यहां दस बिंदु प्रस्तुत हैं.
सबसे पहले, हीन भावना से ऊपर उठें और निर्यात निराशावाद की अपनी पुरानी मानसिकता को बदलें, जिसने हमारे विश्व निर्यात का हिस्सा 1.7 प्रतिशत तक सीमित कर दिया है. निराशावादियों को बढ़ते व्यापार घाटे का डर है. लेकिन वे भूल जाते हैं कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में शामिल होने के लिए कम लागत- उच्च गुणवत्ता वाले आयात का होना आवश्यक है. आयात से प्रतिस्पर्धा एक स्कूल है, जिसमें उद्यमी अपने कौशल को सुधारना सीखते हैं. आयात का विकल्प खोजने की उस खराब आदत को छोड़ दें, जिसने हाल ही में वापसी की है.
दूसरा, अपने टैरिफ को कम करें, जो कि दुनिया में सर्वाधिक है. विदेशों से सस्ता निवेश न केवल हमारे उद्यमियों को ज्यादा प्रतिस्पर्धी बनाएगा, बल्कि घरेलू उत्पादकता में भी वृद्धि करेगा. तीसरा, राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा को दर्जन भर मंत्रियों और राज्यों के सहयोग की आवश्यकता है. इसे एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री के तहत उच्चस्तरीय पहल की जरूरत है. अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि की तरह, मंत्री को प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए मंत्रलयों में सुधारों की निगरानी और कार्यान्वयन में सशक्त होना चाहिए. चौथा, प्रमुख बाधा लालफीताशाही है. व्यापार सुलभता पर निरंतर ध्यान केंद्रित रखें. सभी कागजी कार्रवाई को ऑनलाइन में स्थानांतरित कर दिया जाए. विशेष रूप से अनुबंधों के लागू होने वाले समय को कम करें, जहां भारत का प्रदर्शन दुनिया में सबसे खराब है.
पांचवां, रुपए को फिसलने दें, चाहे वह अस्सी रु. डॉलर तक पहुंच जाए. इससे हमारे निर्यातकों पर कई तरह की पेनाल्टीज का बोझ कम होगा. विनिमय दर को राष्ट्रीय सम्मान का प्रतीक नहीं मानना चाहिए, इसे आर्थिक हालात और प्रतिस्पर्धा को प्रतिबिंबित करना चाहिए.
छठा, अपने कठोर श्रम कानूनों में सुधार कीजिए. सफल राष्ट्र नियोक्ताओं को ‘हायर एंड फायर’ की अनुमति देते हैं, लेकिन श्रमिकों का भी ख्याल रखते हैं. भारत को अस्थायी बेरोजगारी व पुनप्र्रशिक्षण को वित्त पोषित करने के लिए श्रमिक कल्याण निधि (जिसमें नियोक्ताओं और सरकार का योगदान हो) की व्यवस्था करनी चाहिए. सातवां, उद्योग के लिए एक एकड़ जमीन के अधिग्रहण की प्रक्रिया भी न केवल लंबी है बल्कि खर्चीली भी. इस संबंध में वर्तमान कानून को यूपीए-2 के शासनकाल में अधिनियमित किया गया था, जिसमें सैकड़ों हस्ताक्षर की जरूरत पड़ती है. नौकरशाही के इस दु:स्वप्न को एक तर्कसंगत कानून द्वारा प्रतिस्थापित करने की जरूरत है.
आठवां, कृषि उत्पादों के लिए एक अनुमानित आयात-निर्यात प्रणाली बनाएं- वर्तमान ‘स्विच ऑन, स्विच ऑफ’ प्रणाली को रोकें, जो किसानों और विदेशी ग्राहकों दोनों को परेशान करती है. नौवां, भारतीय उद्यमियों को अपने प्रतिस्पर्धियों की तुलना में बिजली, माल ढुलाई और रसद में बहुत ज्यादा लागत वहन करनी पड़ती है. माल ढुलाई की कीमत पर रेल यात्रियों को सब्सिडी देना और उद्योगों की कीमत पर किसानों को सस्ती बिजली देना बंद करें. साथ ही विमानों के ईंधन पर करों को कम करें, जो दुनिया में हमारे एयर कार्गो की दरों को उच्चतम बनाते हैं. दसवां, शैक्षिक प्रणाली में सुधार करें, और रोजगार योग्य स्नातक तैयार करने के लिए निवेश पर नहीं बल्कि परिणामों पर ध्यान केंद्रित करें.