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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: सच्चाई से डरना नहीं, सबक लेना चाहिए

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: February 15, 2019 04:34 IST

ज्ञातव्य है कि अब तक गैलरी के कार्यक्रमों के बारे में सरकार द्वारा ही नियुक्त कलाकारों की समिति निर्णय लिया करती थी. पालेकर ने कहा, उन्होंने सुना है इस समिति को भंग करके अब केंद्रीय सरकार ने कला के कार्यक्र मों के  बारे में निर्णय करने का काम सीधे अपने हाथ में ले लिया है.

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मुंबई की नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट का देश की कला के अतीत और वर्तमान से एक गहरा और आत्मीय रिश्ता है. हाल ही में यहां हमारे समय के महत्वपूर्ण चित्नकार प्रभाकर बर्वे के चित्नों की प्रदर्शनी आयोजित की गई थी. होना तो यह चाहिए था कि इस आयोजन का उल्लेख अपनी कला के प्रति गर्व की भावना के संदर्भ में किया जाता, अपने एक कलाकार की यादों को संजोने के अवसर के रूप में होता, पर दुर्भाग्य से, अब इसे एक अप्रिय लेकिन महत्वपूर्ण विवाद के संदर्भ में भी याद रखा जाएगा.

इस प्रदर्शनी का उद्घाटन अमोल पालेकर ने किया था. पालेकर हमारे समय के महत्वपूर्ण सिने कलाकार फिल्म-निर्माता और चित्नकार हैं और स्वर्गीय प्रभाकर बर्वे के मित्न भी. अपने मित्न को याद करते हुए अमोल पालेकर ने कुछ ऐसा कह दिया जो ‘गैलरी’ के अधिकारियों को रास नहीं आया. वस्तुत: उन्होंने कला के क्षेत्न में सरकारी हस्तक्षेप की आलोचना की थी, जिसे ‘गैलरी’ की निदेशक पचा नहीं पाईं.

उन्होंने कार्यक्र म के विशेष और प्रतिष्ठित अतिथि को भाषण के बीच ही टोकते हुए कहा, वे विषय से भटकें नहीं. उनके इस हस्तक्षेप से पालेकर का चौंकना स्वाभाविक था. आखिर वे यही तो कह रहे थे कि गैलरी के कार्यक्र मों के लिए नियुक्त समिति को भंग किए जाने के समाचार से उन्हें पीड़ा हुई है और वे इस बात के पक्ष में नहीं हैं कि गैलरी के कामकाज से कलाकारों को अलग करके उसे सरकार अपने नियंत्नण में ले ले! 

और यही बात आयोजकों को पसंद नहीं आई. उन्हें लगा पालेकर सरकार की आलोचना कर रहे हैं,  और शायद उनकी दृष्टि में कलाकार द्वारा सरकार की आलोचना करना कोई अपराध है. 

भाषण के बीच में टोके जाने पर पालेकर का परेशान होना स्वाभाविक था. उन्होंने कहा भी, यदि आयोजक चाहते हैं कि वे अपना भाषण पूरा न करें तो वे यहीं रोक देते हैं. जब उन्हें बार-बार टोका गया तो उन्होंने इसी जनवरी में हुए मराठी साहित्य सम्मेलन के यवतमाल अधिवेशन में प्रसिद्ध लेखिका नयनतारा सहगल के साथ हुए हादसे की याद दिलाते हुए पूछा, क्या आयोजक उन्हें सेंसर करना चाहते हैं? इस सवाल का स्पष्ट जवाब आयोजकों ने नहीं दिया, पर पालेकर को पूरा बोलने भी नहीं दिया गया. उन्हें अधूरा भाषण करके बैठ जाना पड़ा. पर इस विवाद की धूल बैठने का नाम नहीं ले रही. दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह भी है कि कार्यक्रम में उपस्थित अधिकांश कलाकारों ने भी आयोजकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता के अधिकार पर इस तरह हमला करने से रोकना जरूरी नहीं समझा. आखिर पालेकर अपने भाषण में यही तो कह रहे थे कि नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट की बागडोर किसी सरकार नहीं, कलाकारों के हाथ में होनी चाहिए.ज्ञातव्य है कि अब तक गैलरी के कार्यक्रमों के बारे में सरकार द्वारा ही नियुक्त कलाकारों की समिति निर्णय लिया करती थी. पालेकर ने कहा, उन्होंने सुना है इस समिति को भंग करके अब केंद्रीय सरकार ने कला के कार्यक्र मों के  बारे में निर्णय करने का काम सीधे अपने हाथ में ले लिया है. इसी निर्णय के अनुसार प्रभाकर बर्वे की कलाकृतियों की प्रदर्शनी वाला यह कार्यक्रम कलाकारों की समिति के निर्णय वाला आखिरी कार्यक्रम होना था.

पालेकर यदि इस बारे में बोल रहे थे तो इसमें विषय से भटकने की बात कहां से आ गई? और यह बात आयोजकों के लिए असह्य कैसे हो गई कि उन्हें अपने विशेष अतिथि को बार-बार रोकना पड़ा. यदि पालेकर इसे कला के क्षेत्न में सरकार का अनुचित हस्तक्षेप मानते हैं तो इसमें गलत क्या है? पालेकर को जो भाषण पूरा नहीं करने दिया गया, उसमें उन्होंने बेल्जियम के अति यथार्थवादी कलाकार रेन मैग्रिटे को उद्धृत करते हुए कहा था, ‘हमें सिर्फ इसलिए दिन के उजाले से नहीं डरना चाहिए कि वह हमारी दुनिया की दयनीय हालत को उजागर करता है.’साहित्य और कला, दोनों, ऐसा ही दिन का उजाला अथवा दर्पण होते हैं- सबकुछ साफ दिखाने वाले, ताकि हममें गंदगी को मिटाने की आवश्यकता का भाव जगे. साहित्य और कला अपना काम सही ढंग से कर सकें इसके लिए जरूरी है कि उन्हें अपना काम करने की आजादी दी जाए, बिना किसी भय के अपनी बात कहने का अवसर दिया जाए. दुर्भाग्य से, उन ताकतों को ‘दिन के उजाले’ और ‘दर्पण’ से डर लग रहा है जिन्हें चेहरे के दाग मिटाने का काम सौंपा गया है! यह डर ही सत्ता को निरंकुश बनाता है, उसे जनतांत्रिक अधिकारों को अंकुश में रखने की प्रेरणा देता है. डर चाहे सत्ताधारी का हो या फिर सताए जाने वाले का, जनतांत्रिक मूल्यों का नकार है यह डर. जब कोई सत्ता डराने की कोशिश करती है तो वस्तुत: उसके पीछे उसका अपना डर होता है. यही डर उसे अपनी आलोचना को देश का विरोध समझने का भ्रम देता है. तब सत्ता खुद को देश समझने लगती है. नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट में अमोल पालेकर के संदर्भ में जो कुछ हुआ वह जनतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं के नकार के रूप में समझा जाना चाहिए. अधिकारियों को पालेकर के कथन से नहीं, इस बात से डर लग रहा था कि सरकार क्या कहेगी. यह डर भी तभी पैदा होता है जब सत्ता अपनी करनी से इस आशय का संकेत देती है.दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं इस तरह के संकेत. किसी नयनतारा सहगल अथवा किसी पालेकर को बाधित करने का मतलब उस उजाले से डरना है जो हमें सच्चाई दिखाता है. सच्चाई से डरना नहीं, उससे सबक लेना चाहिए.

 

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