पुण्य प्रसून वाजपेयी का नजरियाः ठग्स ऑफ हिंदुस्तान को देखनी चाहिए ‘सरकार’

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: November 13, 2018 04:13 PM2018-11-13T16:13:05+5:302018-11-13T16:13:05+5:30

फिल्म सरकार शुरू तो होती है अमेरिका के लास वेगास से सीधे चेन्नई पहुंचे एक एनआरआई से। जो विधानसभा चुनाव में वोट डालने लाखों रु. यात्ना पर खर्च करके पहुंचा है।

Prasun Vajpayee's blog: Thugs of Hindustan makers should watch 'Sarkar' | पुण्य प्रसून वाजपेयी का नजरियाः ठग्स ऑफ हिंदुस्तान को देखनी चाहिए ‘सरकार’

सरकार फिल्म का एक दृश्य

‘ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ ने एहसास कराया कि मौजूदा राजनीतिक महौल में कैसे रचनात्मकता काफूर है तो ‘सरकार’ ने एहसास कराया कि जब रचनात्मकता खत्म होती है और समाज में वैचारिक शून्यता आती है तो कैसे हालात लोकतंत्न ही हड़प लेते हैं। जी, दोनों ही सिनेमा हैं। एक मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री से तो दूसरी तमिल सिनेमा से। और मौजूदा वक्त में कौन किस रूप में नतमस्तक है या किन हालात में कितनी सक्रियता क्षेत्रीय स्तर पर महसूस की जा रही है ये राज ‘ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ में भी छिपा है और ‘सरकार’ में भी।

दरअसल हिंदी पट्टी में बॉलीवुड की धूम हमेशा से रही है। और सिनेमा को समाज का आईना इसलिए भी माना गया क्योंकि इमरजेंसी में गुलजार फिल्म आंधी बनाने से नहीं हिचकते। नेहरू के दौर में सोशलिज्म को चोचलिस्ट कहने से राजकपूर नहीं कतराते। हर दौर को परखें तो बॉलीवुड से कुछ तो निकला जिसने सवाल खड़े किए। या फिर सवालों से घिरे समाज के सामने फिल्म के जरिये ही सही अपने होने का एहसास करा ही दिया। लेकिन ऐसा क्या है कि बीते चार बरस के दौर में आपको कोई ऐसी फिल्म बॉलीवुड की दिखाई नहीं दी जो समाज का आईना हो। खामोशी क्यों छा गई? 

.. और जब क्रिएटिविटी थमती है या दबाव में आ जाती है तो कैसी फिल्म बनती है ये ‘ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ के जरिये समझा जा सकता है। पर इसी कड़ी में जब आप ‘सरकार’ देखते हैं तो रचनात्मकता एक नए उफान के साथ दिखाई देती है। और फिल्म सरकार देखते वक्त बार-बार ये सवाल जहन में उभरता ही है कि अगर इसी कहानी को लेकर बॉलीवुड का कोई फिल्मकार सिनेमा बनाता तो क्या सेंसर बोर्ड पास कर देता!

क्योंकि फिल्म सरकार शुरू तो होती है अमेरिका के लास वेगास से सीधे चेन्नई पहुंचे एक एनआरआई से। जो विधानसभा चुनाव में वोट डालने लाखों रु. यात्ना पर खर्च करके पहुंचा है। लेकिन उसे पता चलता है कि उसका वोट तो पहले ही किसी ने डाल दिया। और तब महज वोट देने का संघर्ष लोकतंत्न के भीतर भरे मवाद को उभार देता है। और परत दर परत जो भी हालात सत्ता में आने के लिए या सत्ता बरकरार रखने के लिए राजनीतिक दल बनाते हैं वो उभरते चले जाते हैं।

तो सिनेमा असरकारक भी है और बेअसर होकर असरकारक नायकों को भी खारिज करने की स्थिति में आ चुका है। तभी तो पुणो में ‘ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ का शो दर्शक ही रुकवा देते हैं। और ‘सरकार’ रुकवाने के लिए एआईएडीएमके सरकार के इशारे पर तमिलनाडु पुलिस फिल्म डायरेक्टर मुरुगादॉस के घर पहुंच जाती है और डायरेक्टर को मद्रास कोर्ट से अग्रिम जमानत लेनी पड़ जाती है।

यानी देश में सियासी हकीकत जब ‘सरकार’ से आगे है तो फिर ‘ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ सरीखी फिल्म लोग देखें क्यों और ‘सरकार’ चाहे तमिल में हो, देखना हिंदी पट्टी के लोगों को भी चाहिए क्योंकि जो हो रहा है उसे सिल्वर स्क्रीन पर देखते वक्त न्याय के लिए आपकी बांहें तो एक बार फड़केंगी जरूर।

Web Title: Prasun Vajpayee's blog: Thugs of Hindustan makers should watch 'Sarkar'

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