नई दिल्ली: पूरा विश्व कोरोना वायरस से जंग लड़ रहा है, इसी बीच एक चौंकाने वाली खबर अंतरिक्ष से आई है कि 29 अप्रैल यानी बुधवार की सुबह 1998 ओआर-2 नाम का उल्कापिंड धरती के पास से गुजरेगा. अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के अनुसार इसकी गति 19000 किलोमीटर प्रतिघंटा होगी. वैज्ञानिकों के मुताबिक उल्कापिंड धरती से नहीं टकराएगा, इसलिए लोगों को घबराने की जरूरत नहीं है. नासा के सेंटर फॉर नियर अर्थ स्टडीज के मुताबिक उल्कापिंड बुधवार सुबह 5:56 बजे (ईस्टर्न टाइम) धरती के पास से गुजरेगा. यानी भारतीय टाइम के मुताबिक दोपहर में तकरीबन 3.25 के आसपास ये भारत से गुजरेगा।
वैज्ञानिकों का कहना है कि किसी विशाल पर्वत के आकार का यह उल्कापिंड अगर पृथ्वी से टकराया तो पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा. हालांकि, इसके पृथ्वी से टकराने के आसार नहीं के बराबर है.
ऐसे उल्कापिंड की हर 100 साल में पृथ्वी से टकराने की 50000 संभावनाएं होती हैं. लेकिन पृथ्वी के ज्ञात इतिहास में ऐसा बहुत ही कम बार हुआ है कि इतना बड़ा उल्कापिंड पृथ्वी से टकराया हो. कुछ मीटर व्यास वाले उल्कापिंड पृथ्वी के वायुमंडल में आते हैं, लेकिन वे तुरंत जल जाते हैं और उनके छोटे-छोटे टुकड़े ही पृथ्वी की सतह तक पहुंच पाते हैं. इस उल्कापिंड के पृथ्वी के पास से गुजरने की जानकारी वैज्ञानिकों ने करीब डेढ़ महीने पहले दे दी थी. तब बताया गया था कि इसका आकार किसी बड़े पहाड़ जितना है. इसके साथ ही इसकी रफ्तार को देखते हुए आशंका जताई गई थी कि जिस गति से यह उल्कापिंड बढ़ रहा है, अगर पृथ्वी को छूकर भी निकला तो सूनामी आ सकती है.
नासा को इस खगोलीय पिंड के बारे में वर्ष-1998 में ही पता चला था
इस खगोलीय घटना को नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता. टेलीस्कोप की मदद से ही लोग इसे देख सकते हैं. नासा को इस खगोलीय पिंड के बारे में वर्ष-1998 में ही पता चल गया था. इसके बाद वैज्ञानिकों ने इसका नाम 52768 और 1998 ओआर-2 दिया है. इसकी कक्षा चपटे आकार की है. वर्ष-1998 से वैज्ञानिक इसका लगातार अध्ययन कर रहे हैं. हाल ही में नासा ने एक तस्वीर भी जारी की थी जिसमें यह उल्कापिंड किसी मास्क लगाए मानव चेहरे की तरह नजर आ रहा था.
क्या होते हैं उल्कापिंड?
दरअसल आकाश में कभी-कभी एक ओर से दूसरी ओर अत्यंत वेग से जाते हुए या पृथ्वी पर गिरते हुए जो पिंड दिखाई देते हैं उन्हें उल्का कहा जाता है और उल्काओं का जो अंश वायुमंडल में जलने से बचकर पृथ्वी तक पहुंचता है उसे उल्कापिंड कहा जाता है, हर रात को उल्काएं अनिगनत संख्या में देखी जा सकती हैं लेकिन इनमें से पृथ्वी पर गिरनेवाले पिंडों की संख्या बेहद कम होती है.
उल्कापिंडों का वर्गीकरण संगठन के आधार पर होता है वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इनका महत्व बहुत अधिक है क्योंकि एक तो ये अति दुर्लभ होते हैं, दूसरे आकाश में विचरते हुए विभिन्न ग्रहों के संरचना के ज्ञान के प्रत्यक्ष स्रोत केवल ये ही पिंड ही हैं, उल्कापिंडों का मुख्य वर्गीकरण उनके संगठन के आधार पर किया जाता है, कुछ तो पिंड लोहे, निकल या मिश्रधातुओं से बने होते हैं और कुछ सिलिकेट खनिजों से बने पत्थर सदृश होते हैं, लोहे, निकल या मिश्रधातुओं को धात्विक और सिलिकेट खनिजों से बने पत्थर को आश्मिक उल्कापिंड कहते हैं.