पूरे भारत में मां दुर्गा अलग-अलग अवतारों में पूजी जाती हैं। मां दुर्गा के अलग-अलग मंदिर है जहां रोजना हजारों की तादाद में भक्त अपनी मनोकमना लेकर आते हैं। आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा के इंद्रकीलाद्री पर्वत पर स्थित एक माता कनक दुर्गेश्वरी का मंदिर है जो अपनी पौराणिक कथाओं के लिए प्रसिद्ध है। यही वह मंदिर है जहां माता दुर्गा ने दानव महिसासुर का वध किया था। वैसे इंद्रकिलाद्री पर्वत का उल्लेख कालिका पुराण, दुर्गा सप्तशती और अन्य वेदिव पुराणों में किया गया है। यह मंदिर कृष्णा नदी के किनारे मौजूद इंद्रकीलाद्री पहाड़ी पर स्थित है।
मंदिर की कलाकृति आपको अपनी ओर आकर्षित करेगी। चारों तरफ पहाड़ों से घिरा मंदिर का नजारा बेहद खूबसूरत दिखेगा। मंदिर में हर वक्त भक्तों, पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। अगर आप कभी आंध्र प्रदेश जाएं तो आपको इस मंदिर के दर्शन जरूर करने चाहिए।
कैसे पड़ा विजयवाड़ा का नाम
किवंदती के मुताबिक इस समय हरीयालियों से पटा विजयवाड़ा किसी जमाने में चट्टानी क्षेत्र (बंजर) में बदल गया था। क्योंकि विजयवाड़ा से बहने वाली कृष्णा नदी का प्रवाह बाधित हो गया था। वहां की जमीन इतनी बंजर हो गई कि खेती करना मुश्किल हो गया था। इस समस्या से बचने के लिए लोगों ने शिव का मंगलचारण किया कि वे वे नदी को बहने के लिए मार्ग दे दें। तब भगवान शिव ने खुद शिव ने पहाड़ियों में बेज्जम (सुराग) बनाई जिससे नदी का पानी आ सके। जिसके कारण इस जगह का नाम बैजवाड़ा पड़ा।
यहीं हुआ था महिषासुर का वध!
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार माता दुर्गा ने महिषासुर नामक राक्षस का वध करने के बाद इसी स्थान पर आराम किया था। कहा जाता है कि महिषासुर नामक राक्षस ने यहां के मूल निवासियों पर अत्याचार करने लगा। अत्याचार बढ़ते देख एक साधु ने इंद्रकीलाद्री पर्वत पर घोर तपस्या की। तब मां दुर्गा ने कनक माता का रुप धारण किया और महिषासुर का वध कर दिया। तब से इंद्रकीलाद्री पर्वत पर माता दुर्गा को कनक दुर्गेश्वरी के रूप में पूजा जाता है।विशेष आयोजन -
आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा स्थित इंद्रकिलाद्री पर्वत पर वास करने वाली माता कनक दुर्गेश्वरी मंदिर में नवरात्र के दिनों में विशेष पूजा का आयोजन होता है। मान्यता के अनुसार यही वह जगह है जहां भगवान शिव की कठोर तपस्या करके अर्जुन को पाशुपतास्त्र प्राप्त हुआ था। पुराणों में कहा गया है कि इस मंदिर को अर्जुन ने मां दुर्गा के सम्मान में बनवाया था। यह भी मान्यता है कि आदिगुरु शंकराचार्य भी यहां आये थे और अपना श्रीचक्र स्थापित करके उन्होंने माता की वैदिक-पद्धति से पूजा-अर्चना की थी।