विवेक दत्त मथुरिया
ब्रज की गोप ग्वाल संस्कृति के बीच नटखट बाल सुलभ लीलाओं के साथ पला बढा गोपाल जगत के यू हीं श्रीकृष्ण नहीं बन गया। गोपाल से श्रीकृष्ण होने तक का संघर्ष और उस समय के राज और समाज व्यवस्था के सरोकारों से भरा हुआ है। ब्रज में होने वाली गोवर्धन पूजा महज पूजा पाठ या कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि देवताओं की सरमायेदारी के खिलाफ पहली जन क्रांति है।
श्रीकृष्ण की अगवाई में ब्रजवासियों ने इन्द्र का मान मर्दन कर गोवर्धन पूजा के रूप में ब्रज लोकधर्म की स्थापना की। आज लोकतंत्र लोकधर्म का ही रूप है। लोकधर्म मतलब जन संस्कृति, लोकधर्म से आशय जन की सत्ता जनता का शासन से ही है। इंद्र का मान मर्दन कर गोवर्धन पूजा के रूप में श्रीकृष्ण की लोकवादी चिंतन की क्रांतिकारी वैचारकी को समझा जा सकता है।
श्रीकृष्ण ने गाय के गोबर को अपने राजनीतिक समाजिक और आर्थिक विमर्श का आधार बनाया। श्री कृष्ण के समय गोपालन संस्कृति एक अर्थप्रधान संस्कृति थी। उस वक्त गाय को ही धन के रूप में मान्यता थी। सूरदास के एक पद में गोधन शब्द का जीवंत प्रयोग किया है.
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ।मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ।कहा करौं इहि रिस के मारें, खेलन हौं नहिं जात।पुनि पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात॥गोरे नंद जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात।चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हँसत सबै मुसुकात॥तू मोहीं को मारन सीखी, दाउहिं कबहुँ न खीझै।मोहन-मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै॥सुनहु कान बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत॥
श्रीकृष्ण ने गाय के गोबर की पूजा के माध्यम से गौ संस्कृति संरक्षण और संवर्धन का एक आंदोलन खड़ा किया, जो स्पष्ट तौर पर एक देवता की सरमायेदारी के खिलाफ एक आर्थिक संघर्ष था। समाजवाद आर्थिक विषमता के विरुद्ध समता का संघर्ष है।
जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने गाय और गोबर को अपने आर्थिक राजनीतिक विमर्श को आधार बनाया ठीक उसी प्रकार महात्मा गांधी ने देश को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त करामे ने के लिए 'स्वराज' की राजनीतिक आर्थिक और अवधारणा पेश की और चरखा को जिसका आधार बनाया।
अफसोस इस बात का है कि श्री कृष्ण जैसे क्रांतिकारी महानायक के संघर्ष और सरोकारों को ' लीलाओं' का नाम देकर भोग राग की संस्कृति को बिस्तर देकर श्रीकृष्ण की सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक वैचारकी को नेपथ्य में धकेलने का अपराध किया है।