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जन्मदिन विशेषः ऐसा रहा है पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सफरनामा

By भारती द्विवेदी | Updated: January 5, 2018 19:26 IST

ममता को राजनीति विरासत की घुट्टी से नहीं बल्कि सड़क पर पसीना बहा कर मिली है...

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एक शोध की माने तो छोटे कद के लोग अधिक आक्रामक होते हैं। ऐसे लोगों से कुदरत लंबाई की जो कटौती करती है उसे उनके तेवरों में बढ़ा देती है। ऐसे लोग धुन के पक्के और अपनी बात मनवाने कर लिए किसी भी हद तक अड़ सकते हैं। हमारे सामने महात्मा गाँधी, सरदार पटेल जैसे महानतम लोगों के उदाहरण हैं जो इस अध्ययन को कहीं पुष्ट कर देते हैं। इसी कड़ी में हमारे पास उदाहरण है पूरब की बेटी ममता बनर्जी का। सफेद सूती साड़ी, रबर की साधारण सी चप्पल और एक हाथ में कड़ा पहनने वाली ये नेता हँसती हुई कम ही दिखती है और पारम्परिक नेताओं से लच्छेदार भाषा में भाषण नहीं देती। मुद्दों को सिर्फ मुद्दों के तौर पर ना लेकर ये उससे भावनात्मक रूप से जुड़ जाती हैं और बोलती हुई अक्सर कड़े शब्दों और लहज़ों में पहुँच जाती हैं।

पिता की वजह से बचपन में ही सियासी दांव-पेंच समझने लगीं 

ममता बनर्जी का जन्म एक बंगाली भद्र परिवार में 1955 में हुआ। पिता कांग्रेस कार्यकर्ता थे और नन्हीं ममता पिता की उंगलियां पकड़ सियासी तक़रीरों में जाया करती थीं। पिता बहुत दिनों तक तो नहीं रहे मगर उनका कार्यकर्ता व्यक्तित्व बेटी में एक बड़े राजनेता के रूप में फलता-फूलता गया। ममता में बचपन से ही निर्णय लेने और उस पर कायम रहने का गुण मौजूद था। कहते हैं कि पिता की मौत के बाद उनके परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई तब उनका परिवार गांव चले जाने की सोचने लगा। ऐसे में ममता ने इस निराश फैसले की जगह बहुत जोख़िम से भरा फैसला परिवार को सुनाया जिसे सबको मानना ही पड़ा। निर्णय था पैतृक संपत्ति को बेच बड़े भाई को पैसे देने की जिससे उनका व्यापार अच्छे से चले और किसी को वापस लौटना ना पड़े।

पढ़ाई में भी रहीं अव्वल

पढ़ाई के तौर पर ममता ने बीए, एमए के साथ बीएड किया और फिर कानून की डिग्री भी ली। एक वेल एजुकेटेड नेता होकर भी उनका बौद्धिक व्यक्तित्व कभी उनकी जन-नेता वाली छवि पर भारी नहीं पड़ा। उनका नाम ध्यान में आते ही सदन में तौल-तौल कर अंग्रेजी भाषण से सबको मुग्ध कर देने वाली नेता की छवि न बन कर पसीने पोंछती और तेज कदमों से चलती, जनता की तकलीफों के पीछे की व्यवस्था पर गुस्साती महिला का चित्र उभरता है।

संघर्ष से सत्ता का सफर

ममता को राजनीति विरासत की घुट्टी से नहीं बल्कि सड़क पर पसीना बहा कर और कई बार लहू-लुहान हो खून बहा कर भी मिला। कांग्रेस की कार्यकर्ता के बतौर शुरू हुआ राजनीतिक करियर 1984 के लोकसभा चुनाव में जादवपुर लोकसभा सीट पर धाकड़ कम्युनिस्ट नेता कॉमरेड सोमनाथ चटर्जी को बुरी तरह से पराजित कर बुलंदियां चढ़ने लगा। तब ममता सबसे युवा सांसदों में गिनी जाती थीं।

जब वैचारिक मतभेद की वजह से कांग्रेस से निकाली गईं

आगे केंद्र की नरसिंह राव सरकार में पहली बार मंत्री बनीं मगर उनका जुझारू व्यक्तित्व प्रशासक के बतौर बहुत फिट नहीं रहा और बेहद कम समय में ही उनका इस्तीफा हो गया। बंगाल की मिट्टी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने केंद्र की सत्ता में मन नहीं रमाने दिया। आगे कम्युनिस्ट एकतंत्र के साथ कैसे संघर्ष हो इस मुद्दे पर पार्टी से उनके मतभेद होने लगे। पार्टी उनके संघर्षशील व्यक्तित्व को पहचान नहीं पाई और ममता ने भी बहुत दिनों तक राजनीतिक अधीनता के लबादे को ओढ़े रहना नहीं चाहा। किसी खास मुद्दे को लेकर पार्टी और नेता की इस  सियासी सोच के अंतर का पटाक्षेप पार्टी से उनके निष्कासन के साथ हुआ। कांग्रेस से छूटते ही उन्होंने माँ-माटी और मानुष के नाम पर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। अब वे लड़ने की बेहतर स्थिति में थीं। लेफ्ट फ्रंट से लड़ते हुए कई बार बुरी तरह घायल हुईं और पुलिसिया बर्बरता की शिकार हुईं। 

देवी पूजक बंगाल में वहां की पुलिस ने कई बार ऐसा व्यावहार भी किया जो किसी भी स्त्री की गरिमा के विरुद्ध होता है। आगे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री बनीं और खुद को उस स्थिति में ले आईं जब वे अपने सूबे का खास ख्याल रख सकती थीं। शुरुआत में खास सफलता नहीं मिली। न लोकसभा में और ना ही राज्य विधानसभा में ही उनकी पार्टी कुछ कमाल कर सकी। मगर बिना थके और बिना रुके शक्ति की आराधना चलती रही, ममता लड़ती रहीं।

औद्योगिकरण के खिलाफ 25 दिन भूख हड़ताल पर बैठीं

जब वाममोर्चा सरकार औद्योगिकरण के लिए अतिवादी तरीके से सिंगुर और नंदीग्राम में जमीनें छिनने लगीं तब ममता ने इसे देखते रहने की बजाए हर तरह का संघर्ष किया। जिसमें उनका पच्चीस दिनों तक चलने वाली भूख हड़ताल भी शामिल था। जनता ने उनमें अपना भावी शासक दिखा और 2009 के लोकसभा चुनाव में राज्य की करीब आधी सीटें उनकी झोली में डाल कर दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले लाल सलाम वाली सरकार के आगे खतरे की लालबत्ती जला दी। 2011 में करीब साढ़े तीन दशक की वामपंथी सत्ता की कनात बंगाल की ज़मीन से उखड़ी और ममता बनर्जी राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। ये वह पद था जहाँ पहुँच कर वे सीधे माटी और मानुष की सेवा कर सकती थीं। 2016 में सत्ता में वापसी से पूर्व बंगाल की 34 सीटें जीत कर कांग्रेस, एआईएडीएमके के बाद संख्या बल के हिसाब से लोकसभा की तीसरी सबसे बड़ी ताकत बन गईं थीं। आज जबकि पूरे देश में कमल खिलता जा रहा है। नीतीश कुमार जैसे विपक्षी भी पक्ष में आ गए हैं, ममता बनर्जी पूरब से ही सही दिल्ली की मनमानी के खिलाफ जबरदस्त रूप से मुखर हैं।

अपनी शर्तों पर राजनीति करती हैं ममता

राजनीतिक पंडित कहते हैं कि ममता बनर्जी एक शानदार नेता हैं मगर अच्छी प्रशासक नहीं बन सकीं। चाहे रेलवे की मंत्री हो या अब राज्य की मुखिया की भूमिका उनके ज़्यादातर निर्णय लोक-लुभावने तरीके से लिए जाते हैं जो कि तरक़्क़ी के लिए बहुत शुभ नहीं कहे जा सकते। ममता पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण से लेकर राज्य के आर्थिक विकास को बाधित करने के आरोप लगते रहते हैं। उद्योग उनकी उद्योग विरोधी छवि से डरते हैं क्योंकि एक बार वे टाटा को बंगाल से भगा चुकी हैं। देश को अब भी याद होगा जब 2012 में अपने रेलमंत्री को उन्होंने केवल इसलिए इस्तीफे के लिए मजबूर कर दिया था क्योंकि उन्होंने रेलवे की माली हालत को ठीक करने के लिए यात्री किराए में कुछ पैसों की बढ़ोतरी कर दी थी। पट्रोल की कीमतों के खिलाफ 2013 में मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। यहीं कारण है कि वे कभी किसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए सहज सहयोगी नहीं रहीं। उनकी बातें चाहे हमें जैसी भी लगे मगर बंगाल का मानुष  जानता हैै कि ममता दीदी मतलब एेसे ही कोई भावुक फैसलों का नाम है।

ममता बनर्जी के जन्मदिन पर लोकमत न्यूज की तरफ से हार्दिक शुभकामनाएं।

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